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भगवई
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श.७ : उ. ८ : सू. १६१-१६६
वे प्रकम्पनों के आधार पर दूर तथा भविष्य में होने वाली घटना को जान लेते हैं। आदि जीवों में केवल कर्मोदयरूप होती है। वर्तमान वैज्ञानिकों ने यन्त्रों के लोक-परम्परा अथवा वंश-परंपरा से होने वाली संज्ञा 'लोक संज्ञा' है। वृत्तिकार माध्यम से पेड़-पौधो में इन संज्ञाओं का अध्यापन किया है, इसलिए एकेन्द्रिय ने लिखा है कि ये संज्ञाएं स्पष्ट रूप में पञ्चेन्द्रिय जीवों में होती हैं, एकेन्द्रिय आदि जीवों में यह स्पष्ट विज्ञात हो रही हैं।
नेरइयाणं दसविहवेदणा-पदं
नैरयिकाणां दशविधवेदना-पदम् नैरयिकों की दशविध वेदना का पद १६२. नेरइया दसविहं वेयणं पच्चणुभवमाणा नैरयिकाः दशविधां वेदनां प्रत्यनुभवन्तः वि- १६२. 'नैरयिक दस प्रकार की वेदना का अनुभव करते विहरंति, तं जहा-सीयं, उसिणं, खुह, पि- हरन्ति, तद् यथा-शीतम्, उष्णं, क्षुधां
खहं. पि- हरन्ति. तद यथा-शीतम, उष्णं, क्षधां रहते हैं,जैसे-सर्दी, गर्मी, भूख, प्यास, खुजली, परवासं, कंडु, परझं, जरं, दाहं, भयं, सोगं ॥ पिपासां, कंडूं, 'परज्झं', ज्वरं, दाहं, भयं, शो- वशता, ज्वर, दाह, भय और शोक।
कम्।
भाष्य १. सूत्र १६२
__ का उल्लेख है। ये सब दुःखद वेदनाएं हैं। नारकीय जीव प्रायः इनका अनुभव प्रस्तुत सूत्र में नारकीय जीवों की शारीरिक और मानसिक वेदना करते हैं। उनमें सुखद वेदना का अनुभव कदाचित् होता है। हत्थि-कुंथूणं अपच्चक्खाणकिरिया-पदं हस्ति-कुन्थोः अप्रत्याख्यानक्रिया-पदम् हस्ती और कुन्थु की अप्रत्याख्यानक्रिया का पद १६३. से नूणं मंते! हत्थिस्स य कुंथुस्स यसमा तन् नूनं भदन्त ! हस्तिनः च कुन्थोः च समा १६३. भन्ते ! क्या हाथी और कुंथु के अप्रत्याख्यानक्रिया चेव अपच्चक्खाणकिरिया कज्जइ? चैव अप्रत्याख्यानक्रिया क्रियते ?
समान होती है? हंता गोयमा ! हत्थिस्स य कंथुस्स य समा हन्त गौतम ! हस्तिनःच कुन्थोः च समा चैव हाँ, गौतम ! हाथी और कुंथु के अप्रत्याख्यानक्रिया चेव अपच्चक्खाणकिरिया कज्जइ ॥ अप्रत्याख्यानक्रिया क्रियते।
समान होती है।
१६४. से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-हत्थिस्स तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-हस्तिनः १६४, भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा हैय कुंथुस्स य समा चेव अपच्चक्खाणकिरिया च कुन्थोः च समा चैव अप्रत्याख्यानक्रिया हाथी और कुन्थु के अप्रत्याख्यानक्रिया समान होती कज्जइ ?
क्रियते ? गोयमा! अविरति पडुच्च । से तेणटेणं गौतम! अविरतिं प्रतीत्य। तत् तेनार्थेन गौतम ! अविरति की अपेक्षा से । गौतम ! इस अपेक्षा गोयमा! एवं वुच्चइ--हत्थिस्स य कुंथुस्स य गौतम! एवमुच्यते-हस्तिनः च कुन्थोः च से कहा जा रहा है-हाथी और कुन्थु के अविरति की समा चेव अपच्चक्खाणकिरिया कज्जइ॥ समा चैव अप्रत्याख्यानक्रिया क्रियते । क्रिया समान होती है।
चिणाइ?
अहाकम्मादि-पदं
आधाकर्मादि-गदम्
आधाकर्म आदि-पद १६५. अहाकम्मं णं भंते ! भुंजमाणे किं आधाकर्म भदन्त ! भुजानः किं बध्नाति? १६५. 'भन्ते ! 'आधाकर्म' भोजन करता हुआ श्रमणबंधइ? किं पकरेइ ? किं चिणाइ ? किं उव. किं प्रकरोति ? किं चिनोति ? किम् उप- निर्गन्थ क्या बांधता है ? क्या करता है? क्या चय चिनोति?
करता है? क्या उपचय करता है? गोयमा ! अहाकम्मं णं मुंजमाणे आउय- गौतम! आधाकर्म भुञ्जानः आयुर्वर्जा सप्त गौतम ! आधाकर्म भोजन करता हुआ श्रमण निर्ग्रन्थ वज्जाओ सत्त कम्म्प्पगडीओ सिढिलबंधण- कर्म-प्रकृतीः शिथिलबन्धनबद्धाः ‘धणिय'- आयुष्य कर्म को छोड़ कर शेष सात कर्मों की शिथिल बद्धाओ धणियबंधणबद्धाओ पकरेइ जाव। बन्धन-बद्धाः प्रकरोति यावत् शाश्वतः बन्धनबद्ध प्रकृतियों को गाढ़ बन्धनबद्ध करता है सासए पंडिए, पंडियत्तं असासयं ॥ पंडितः, पंडितत्वम् अशाश्वतम् । यावत् (पू. भ. १/४३६-४४०) पण्डित शाश्वत है,
पंडितत्व अशाश्वत है।
भाष्य १. सूत्र १६५
द्रष्टव्य भ. १/४३६-४४० का भाष्य । १६६. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ॥ तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त! इति । १६६. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है।
१. भ. वृ.७/१६१। २. द्रष्टव्य भ. ६/१८५ का भाष्य ।
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