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________________ श. ७: उ. ८ : सू. १६०-१६१ त्मिक परिभाषा है। आचार्य कुन्दकुन्द ने 'आत्मा स्वयं सुख है' – इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। उन्होंने लिखा है -- यदि दृष्टि स्वयं तिमिर को दूर करने वाली है, फिर दीप का क्या प्रयोजन ? आत्मा स्वयं सुख है, फिर इन्द्रिय-विषयों का क्या प्रयोजन ?" प्रस्तुत सूत्र में दुःख सुख की परिभाषा पाप कर्म के बंध और निर्जरण दसविहसन्ना-पदं १६१. कति णं भंते ! सन्गाओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! दस सम्मओ पण्णत्ताओ, तंजा आहारसण्णा, भवसण्णा, मेहुणसण्णा, परि ग्गहसण्णा, कोहसण्णा, माणसण्णा, मायासण्णा, लोभसण्णा, लोगसण्णा, ओहसण्णा एवं जाव वेमाणियाणं ॥ १. आहार २. भय ३. मैथुन ४. परिग्रह ५. क्रोध ६. मान ७. माया ८. लोभ ६. लोक १०. ओघ - १. सूत्र १६१ संज्ञा जैन मनोविज्ञान का बहुचर्चित शब्द है नन्दी में तीन प्रकार के संत्री बतलाए गए हैं. कालिकोपदेश २. हेतूपदेश ३. दृष्टिवादोपदेश २ इनके आधार पर तीन संज्ञाएं फलित होती हैं-1. कालिकोपदेशिकी २. हेतूपदेशिकी ३. दृष्टिवादोपदेशिकी। इनके आधार पर समनस्क और अमनस्क की व्यवस्था की गई है। ये संज्ञाएं ज्ञानात्मक हैं। प्रस्तुत प्रकरण में निर्दिष्ट दस संज्ञाएं केवल ज्ञानात्मक नहीं हैं। वे ज्ञानात्मक और संवेगात्मक दोनों हैं। वृत्तिकार ने इस का निर्देश किया है। संज्ञा कर्म १. प्रवचनसार, गा. ६७ ३८२ भगवई के आधार पर की गई है। पाप कर्म का बंध दुःख का हेतु है और सहज सुख के अनुभव में बाधा उपस्थित करता है, इसलिए वह दुःख ही है। उसका निर्जरण सहज सुख के अनुभव का हेतु बनता है, इसलिए पाप कर्म की निर्जरा को सुख बतलाया गया है। दशविधसंज्ञा-पदम् कति भदन्त ! संज्ञाः प्रज्ञप्तः ? गौतम! दश संज्ञाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा-आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा, क्रोधसंज्ञा, मानसंज्ञा, मायासंज्ञा, लोभसंज्ञा, लोकसंज्ञा, ओघसंज्ञा एवं यादवैमानिकानाम्। क्षुधावेदनीय का उदय भयमोहनीय का उदय वेदमोहनीय का उदय Jain Education International भाष्य ओघ संज्ञा का अर्थ दर्शनोपयोग और लोक संज्ञा का अर्थ ज्ञानोपयोग किया गया है, यह विमर्शनीय है। सिद्धसेन गणी ने ओघ संज्ञा का अर्थ अनिन्द्रिय तिमिरहरा जड़ दिट्ठी, जणस्स दीवेण णत्थि कादव्वं । तच्च सोक्खं सयमादा, विसया किं तत्थ कुव्वंति ? लोभमोहनीय का उदय क्रोधवेदनीय का उदय मानवेदनीय का उदय मायावेदनीय का उदय लोभवेदनीय का उदय मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम २. नंदी, ६१ । ३. भ. वृ. ६/ १६१ - तत्र संज्ञानं संज्ञा - आभोग इत्यर्थः मनोविज्ञानमित्यन्ये संज्ञायते वाऽनयेति संज्ञा वेदनीयमोहनीयोदयाश्रया ज्ञानदर्शनावरणक्षयोपशमाश्रया च विचित्रहारादिप्राप्तये क्रियैवेत्यर्थः । दशविधसंज्ञा-पद १६१. 'भन्ते ! संज्ञा के कितने प्रकार प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! संज्ञा के दश प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे- आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा, परिग्रह संज्ञा, क्रोधसंज्ञा, मान संज्ञा, माया संज्ञा, सोभ संज्ञा, लोक संज्ञा, ओप संज्ञा वैमानिक तक के सभी दण्डकों में दशों संज्ञाएं होती है। वेदनीय और मोहनीय कर्म के उदय तथा ज्ञानावरण और दर्शनावरण के क्षयोपशम से होने वाली चेतना का नाम है संज्ञा । इनमें प्रथम आठ संज्ञाएं संवेगात्मक अथवा संवेदनाप्रधान हैं। शेष दो संज्ञाएं ज्ञानात्मक हैं वृत्तिकार ने संज्ञा की व्यवहारपरक व्याख्या की है।" उसकी तुलना व्यवहार - मनोविज्ञान से की जा सकती है। वृत्तिकार ने मतान्तर का उल्लेख किया है। उसके अनुसार ओघ का अर्थ है - 'सामान्य प्रवृत्ति' और लोक का अर्थ है 'विशेष प्रवृत्ति' । ' शारीरिक और मानसिक परिवर्तनों की जानकारी के लिए देखें यन्त्र शारीरिक-मानसिक क्रिया और परिवर्तन हाथ से कोर लेना, मुख का संचलन आदि, आहार की खोज उद्घान्त दृष्टि, वचनविकार, रोमाञ्च आदि अंगों का अवलोकन, स्पर्श, कम्पन आदि आसक्तिपूर्वक द्रव्यों का ग्रहण और संग्रह नेत्रों की रूक्षता, दांत और होंठों की फड़कन आदि अहंकारपूर्वक शरीर की अकड़न संक्लेशपूर्वक मिथ्या भाषण छिपाने आदि की क्रिया लोभपूर्वक द्रव्य के ग्रहण और संग्रह की अभिलाषा । विशेष अवबोध की क्रिया सामान्य अवबोध की क्रिया ज्ञान किया है जो ज्ञान इन्द्रिय और मन के बिना सामान्य चेतना से होता है, वह ओघ संज्ञा है। यह ज्ञान पेड़-पौधों और छोटे जीव-जन्तुओं में भी होता है। ४. वही, ६ / १६११ ५. वही, ७/१६११ ६. त. सू. भा. वृ. १/१४, पृ. ७८ ओघः - सामान्य अप्रविभक्तरूपं यत्र न स्पर्शनादीनीन्द्रियाणि तानि मनोनिमित्तिमा श्रीयन्ते, केवलं मत्यावरणीयक्षयोपशम एव तस्य ज्ञानस्योत्पत्ती निमित्तम्, यथा वल्ल्यादीनां नीवाद्यभिसर्पणज्ञानं न स्पर्शननिमित्तं न मनोनिमित्तमिति, तस्मात् तत्र मत्यज्ञानावरण-क्षयोपशम एव केवलो निमित्तीक्रियते ओघज्ञानस्य । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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