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________________ भगवई ३८१ श.७ : उ. ८: सू. १५८-१६० तए णं से पदीवे दीपचंपगस्स अंतो-अंतो ततः स प्रदीपः दीपचम्पकस्य अन्तः-अन्तः ओभासति उज्जोवेइ तवति पभासेइ, नो चेव अवमासयति उद्द्योतयति तापयति प्रभासणं दीवचंपगस्स बाहिं, नो चेव णं चउसट्ठियाए यति, नो चैव दीपचम्कस्य बहिः, नो चैव बाहिं, नो चेव णं कूडागारसालं, नो चेव णं चतुःषष्ट्या बहिः, नो चैव कूटाकारशाला, नो कूडागारसालाए बाहिं। चैव कुटाकारशालायाः बहिः। एवामेव गोयमा ! जीवे वि जं जारिसयं पुव- एवमेव गौतम ! जीवः अपि यद् यादृक् पूर्वकम्मनिबद्धं बोंदि निव्वत्तेइ तं असंखेज्जेहिं कर्मनिबद्धं 'बोंदि' निर्वर्तयति तद् असंख्येयैः जीवपदेसेहिं सचित्तीकरेइ-खुड्डियं वा महा- जीवप्रदेशैः सचित्तीकरोति-क्षुल्लिका वा लियं वा। से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ- महालयां वा। तत् तेनार्थेन गौतम! एवहत्थिस्स य कुंथुस्स य समे चेव जीवे। मुच्यते-हस्तिनः च कुन्थोः च समः चैव जीवः । से ढांक देता है, तब वह प्रदीप दीपचंपक के भीतरी भाग को अवभासित, उयोतित, तप्त और प्रभासित करता है, उसके बाहर प्रकाश नहीं फैलता, न चतुःषष्टिका के बाहर, न कूटाकार शाला में और न कूटाकार शाला के बाहर। गौतम ! इसी प्रकार जीव भी पूर्व कर्म के अनुसार जैसे शरीर का निर्माण करता है, उस शरीर को अपने असंख्य प्रदेशों से सचित्त बना देता है-वह शरीर छोटा हो अथवा बड़ा । गौतम ! इस अपेक्षा से कहा जा रहा है-हाथी और कुंथु का जीव समान है। भाष्य १. सूत्र १५८, १५६ चैतन्य जीव का सामान्य लक्षण है।' उसकी दृष्टि से सब जीव समान होते हैं, किंतु उसका विकास सब में समान नहीं होता। उसका हेतु है-आवरण का तारतम्य । चैतन्य की दृष्टि से सब जीव समान हैं और कर्मजनित तारतम्य की दृष्टि से वे असमान हैं-यह प्रस्तुत आलापक का प्रतिपाद्य है। जीवत्व की दृष्टि से हाथी और कुंथु की समानता का प्रतिपादन कर तारतम्य के दस बिंदु बतलाए गए हैं। प्रश्न उपस्थित हुआ-हाथी और कुंथु का जीव चैतन्य की दृष्टि से समान है-यह कैसे संभव है ? कुंथु अपने छोटे शरीर को चैतन्यमय बनाता है और हाथी अपने विशाल शरीर को चैतन्यमय बनाता है, फिर दोनों का चैतन्य समान कैसे? इस प्रश्न का समाधान प्रकाश और ढक्कन के उदाहरण से दिया गया है-दीये पर ढक्कन छोटा होता है तो वह छोटे भाग को प्रकाशित करता है, ढक्कन बड़ा होता है तो वह बड़े भाग को प्रकाशित करता है। इसी प्रकार जीव पूर्वकृत कर्म के अनुसार जिस प्रकार के शरीर का निर्माण करता है, उसे अपने असंख्य आत्म प्रदेशों से चैतन्यमय बनाता है, फिर वह छोटा हो अथवा बड़ा । शरीर का भेद चैतन्य की सत्ता में भेद नहीं डालता। उससे चैतन्य का प्रसार-क्षेत्र छोटा-बड़ा हो सकता है। शब्द-विमर्श कूडागारसाला-द्रष्टव्य भ. ३/२६ का भाष्य इड्डरअ-बड़ा पिटक । द्रष्टव्य देशी शब्द कोश। गोकिलिञ्ज-बांस का बड़ा पात्र। उसे देशी भाषा में 'डल्ला', बंगाली भाषा में 'डाला' और राजस्थानी भाषा में 'खारियो' कहा जाता है। पच्छियापिडअ-बांस से बना हुआ पात्र, पिटारा। गंडमाणिया-बांस से बना हुआ पात्र, 'डालिया' जो 'डल्ला' से छोटा होता है। आढक, प्रस्थक आदि पात्र उत्तरोत्तर छोटे होते हैं। दीवचंपअ-दीये का ढक्कन । आढक से चतुःषष्टिका-द्रष्टव्य अणुओगदाराई, सू. ३७७ सुह-दुक्ख-पदं सुख-दुःख-पदम् सुख-दुःख-पद १६०. नेरइयाणं भंते ! पावे कम्मे जे य कडे,जे नैरयिकाणां भदन्त ! पाप कर्म यच् च कृतं, १६०. 'भन्ते ! नैरयिकों द्वारा जो पापकर्म कृत है, जो य कज्जइ, जे य कज्जिस्सइ सब्वे से दुक्खे, यच्च क्रियते, यच्च करिष्यते सर्वं तद् दुःखं, किया जा रहा है, जो किया जाएगा, क्या वह सब दुःख जे निज्जिण्णे से सुहे ? यद् निर्जीर्णं तत् सुखम्? है ? जो पाप कर्म निर्जीर्ण है, क्या वह सुख है ? हंता गोयमा ! नेरइयाणं पावे कम्मे जे य हन्त गौतम ! नैरयिकाणां पापं कर्म यच् च हां, गौतम । नैरयिकों द्वारा जो पाप कर्म कृत है, जो कडे, जे य कज्जइ, जे य कज्जिस्सइ सव्वे से कृतं, यच् च क्रियते, यच् च करिष्यते सर्व किया जा रहा है, जो किया जाएगा, वह सब दुःख है। दुक्खे, जे निज्जिण्णे से सुहे । एवं जाव तद् दुःखं, यद् निर्जीर्णं तत् सुखम् । एवं यावद् जो पाप कर्म निर्जीर्ण है, वह सुख है। इसी प्रकार वेमाणियाणं। वैमानिकानाम्। वैमानिक तक के सभी दण्डकों की वक्तव्यता । भाष्य १. सूत्र १६० दुःख और सुख की परिभाषा अनेक कोणों से की गई है। सामान्यतः अनुकूल वेदनीय को सुख और प्रतिकूल वेदनीय को दुःख कहा जाता है। इस परिभाषा का संबंध संवेदन से है। प्रस्तुत सूत्र में सुख और दुःख की आध्या १. भ. २/१३६,१३७। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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