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श. ७ : उ. ८ : सू. १५८-१५६
कुंथूओ हत्थी महाकम्मतराए चैव महाकिरियतराए चैव महासवतराए चैव महाहारतराए चेव महानीहारतराए चेव महाउस्सासतराए चैव महानीसासतराए चैव महिदितराए चैव महामहतराए चेव महज्जुइतराए चेव ? हंता गोयमा हल्थीओ कुंयू अप्यकम्मतराए चैव कुंयूओ वा हत्थी महाकम्मतराए चैव, हत्थीओ कुंथू अप्पकिरियतराए चेव कुंथूओ वा रुत्थी महाचिरियतराए चेव, हत्थीओ कुंथू अप्पासवतराए चेव कुंथूओ वाहत्थी महासवतराए चेव, एवं आहार-नीहार उस्सास नीसास-इदिड महज्जुइएहिं हत्थीओ कुंथू अप्पतराए चेव कुंथूओ वा हत्थी महातराए चैव ॥
१५६. से केणद्वेणं मंते ! एवं वुच्चइ-हत्थिस्स य कुंथुस्स य समे चैव जीवे ?
यमा! से जहानामए कूडागारसाला सिया - दुहओ लित्ता गुत्ता गुत्तदुवारा निवाया निवाय गंभीरा अहन के पुरिसे जोई व । दीवं व गहाय तं कूडागारसालं अंतो- अंतो अणुपविस, तीसे कूडागारसालाए सव्वतो समंता घण-निचिय - निरंतर निच्छिड्डाई दुवार चयणाई पिति, तीसे कूडागारसालाए बहु मज्झसभाए तं पईवं पलीवेज्जा । तणं से पईवे तं कूडागारसालं अंतो-अंतो ओभासद उज्जोवे तवति पभासेड़, नो चेव णं बाहिं ।
अह में से पुरिसे तं पई दहरएन पिहेन्जा, तए णं से पईवे तं इडरयं अंतो-अंतो ओमासेइ उज्जोवे तवति पभासेड़, नो चेव णं इङ्गरगरस वाहि नो चेव गं कूटागारसाल, नो चेव णं कूडागारसालाए बाहिं ।
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एवं - गोकिलिंजेणं पच्छियापिडएणं गंडमाणिया आढएणं अद्धाढएणं पत्थएणं अद्धपत्थएणं कुलवेणं अद्धकुलवेणं चाउब्भाइयाए अट्टभाइवाएं सोलसियाए बत्तीसियाए चउसडियाए ।
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कुन्थोः हस्ती महाकर्मतरकः चैव महाक्रियातरकः चैव महास्रवतरकः चैव महाहारतरकः चैव महानीहारतरकः चैव महोच्छ्वासतरकः चैव महानिः श्वासतरकः चैव महर्धितरकः चैव महामहस्तरकः चैव महाद्युतितरकः चैव ? हन्त गौतम ! हस्तिनः कुन्धुः अल्पकर्मतरकः चैव कुन्धोः वा हरती महाकर्मतरकः चैव, हस्तिनः कुन्थुः अल्पक्रियातरकः चैव कुन्थोः या हस्ती माक्रियारकः चैव, हस्तिनः कुन्थुः अल्पास्रवतरकः चैव कुन्थोः वाहस्ती महास्रावतरकः चैव, एवम् आहार-नीहार-उच्छवास निःश्वास ऋद्धि-महोद्युतिभिः हस्तिनः कुन्थुः अल्पतरकः चैव कुन्थो वा हस्ती महत्तरकः चैव ।
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तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते — हस्तिनः च कुन्योः च समः चैव जीवः ?
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गौतम! तद् यथानाम कूटाकारशाला स्यात्द्वितः लिप्ता गुप्ता गुप्तद्वारा निर्वाता निर्वात गम्भीरा अब कश्चित् पुरुषः ज्योतिर्वा दीपं वा गृहीत्वा तां कूटाकारशालाम् अन्तः-अन्तः अनुप्रविशति, तस्याः कूटाकारशालायाः सर्वतः समन्तात् घन - निचित- निरन्तर - निश्छिद्राणि द्वार वचनानि पिदधाति तस्याः कूटाकारशालायाः बहुमध्यदेश भागे तं प्रदीपं प्रदीपयति। ततः स प्रदीपः तां कूटाकारशालाम् अन्तःअन्तः अवभासयति उद्योतयति तापयति प्रभासयति, नो चैव बहिः ।
अथ स पुरुष तं प्रदीपम् 'इहरणं पिदध्यात्, ततः स प्रदीपः तद् 'इडुरयं' अन्तः-अन्तः अवमासयति उद्योतयति तापयति प्रमासयति नो चैव 'इहरगरस' यहिः, नो चैद कुटाकारशाला, नो चैव कूटाकारशालायाः बहिः । एवं- गोकिलिञ्जेन पक्षिकापिटकेन 'गण्डमाणियाए' आढकेन अर्द्धाढकेन प्रस्थकेन अर्द्धप्रस्थकेन कुडवेन अर्द्धकुडवेन चातुभगिक्या अष्टभागिक्या षोडशिक्या द्वात्रिंशिक्या चतुष्टिक्या
अह गं पुरिसे तं पईव दीवचंपणं पिज्जा अन्य पुरुषः तं प्रदीपं दीपचम्पकेन पियत्।
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भगवई कुन्यु की अपेक्षा हाथी महत्तर फर्म, महत्तर क्रिया, महत्तर आश्रव, महत्तर आहार, महत्तर नीहार, महत्तर उच्छ्वास, महत्तर निःश्वास, महत्तर ऋद्धि, महत्तर महिमा और महत्तर द्युति वाला है ?
हां, गौतम ! हाथी की अपेक्षा कुन्थु अल्पतर कर्म वाला है और कुन्थु की अपेक्षा हाथी महत्तर कर्म वाला है; हाथी की अपेक्षा कुन्थु अल्पतर क्रिया वाला है और कुन्दु की अपेक्षा हाथी महत्तर किया वाला है; हाथी की अपेक्षा कुन्थु अल्पतर आश्रव वाला है और कुन्धु की अपेक्षा हाथी महत्तर आश्रव वाला है; इसी प्रकार हाथी की अपेक्षा कुन्थु अल्पतर आहार, नीहार, उच्चश्वास, निःश्वास, ऋद्धि, महिमा और बुति वाला है और कुन्धु की अपेक्षा हाथी महत्तर आहार, नीहार, उच्छ्वास, निःश्वास, ऋद्धि, महिमा और ति
वाला है।
१५६. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है - हाथी का जीव और कुन्थु का जीव समान है ? गौतम ! जैसे कोई कूटाकार (शिखर के आकार वाली) शाला है। वह भीतर और बाहर दोनों ओर से लीपी हुई, गुप्त, गुप्त द्वार वाली, पवन-रहित और निवातगंभीर है। कोई पुरुष ज्योति अथवा दीप को लेकर उस कूटाकार शाला के चारों ओर से सघन, निचित, अन्तरऔर छिद्र-रहित किवाड़ों को बंद कर देता है और उस कूटाकार शाला के प्रायः मध्यभाग में उस प्रदीप को प्रदीप्त करता है।
वह प्रदीप उस कूटाकार शाला के भीतरी भाग को अवभासित, उद्योतित, तप्त और प्रभासित करता है, बाहर के भाग में उसका प्रकाश नहीं फैलता । वह पुरुष उस प्रदीप को एक बड़े पिटक से ढांक देता है, तब वह प्रदीप उस बड़े पिटक के भीतरी भाग को अवभासित, उद्योतित, तप्त और प्रभासित करता है, उसके बाहर प्रकाश नहीं फैलता, न कूटाकार शाला में और न कूटाकार शाला के बाहर ।
इसी प्रकार - गोकिलिञ्ज, पिटारा, डालिया, आढक, अर्धआढक, प्रस्थ, अर्धप्रस्थ, कुडव, अर्धबुडव, चतुर्भागिका (कुडव का चौथा भाग), अष्टभागिका (कुडव का आठवां भाग), षोडशिका (कुडव का सोलहवां) भाग), द्वात्रिंशिका (कुडव का बत्तीसवां भाग), चतुःषष्टिका (कुडव का चौसठवां भाग ) से ढांकने पर प्रदीप का प्रकाश उनके भीतर ही फैलता है, बाहर नहीं फैलता ।
वह पुरुष उस प्रदीप को दीपचंपक ( दीये का ढक्कन)
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