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________________ छट्ठो उद्देसो : छठा उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद आउयपकरण-वेयणा-पदं आयुष्क-प्रकरण-वेदना-पदम् १०१. रायगिहे जाव एवं वयासी-जीवे णं भंते! राजगृहे यावद् एवमवादी–जीवः भदन्त! जे भविए नेरइएसु उववज्जित्तए, से णं भंते! यः भव्यः नैरयिकेषु उपपत्तुं, स भदन्त ! किं इहगए नेरइयाउयं पकरेइ? उववज्जमाणे किम् इहगतः नैरयिकायुः प्रकरोति? उप- नेरइयाउयं पकरेइ? उववन्ने नेरइयाउयं पक- पद्यमानः नैरयिकायुः प्रकरोति ? उपपन्नः नैरयिकायुः प्रकरोति? आयुष्क-प्रकरण वेदना-पद १०१. ' राजगृह नगर में महावीर का समवसरण यावत् गौतम ने इस प्रकार कहा-भन्ते ! जो भविक जीव नैरयिक-रूप में उपपन्न होने वाला है, भन्ते ! क्या वह यहां रहता हुआ नैरयिक आयुष्य का बंध करता है? उपपन्न होता हुआ नैरयिक आयुष्य का बंध करता है? उपपन्न होने पर नैरयिक आयुष्य का बंध करता है ? गौतम ! वह यहां रहता हुआ नैरयिक आयुष्य का बंध करता है, उपपन्न होता हुआ नैरयिक आयुष्य का बंध नहीं करता, उपपन्न होने पर नैरयिक आयुष्य का बंध नहीं करता। असुरकुमारों के लिए भी यही नियम है। इसी प्रकार यावत् वैमानिकों के लिए भी यही नियम है। गोयमा ! इहगए नेरइयाउयं पकरेइ, नो गौतम ! इहगतः नैरयिकायुः प्रकरोति, नो उववज्जमाणे नेरइयाउयं पकरेइ, नो उववन्ने उपपद्यमानः नैरयिकायुः प्रकरोति, नो उपनेरइयाउयं पकरेइ । एवं असुरकुमारेसु वि, पन्नः नैरयिकायुः प्रकरोति। एवं असुर- एवं जाव वेमाणिएसु॥ कुमारेषु अपि, एवं यावद् वैमानिकेषु। भाष्य १. सूत्र १०१ ___ परलोक-विद्या का महत्त्वपूर्ण प्रश्न है-पुनर्जन्म के आयुष्य का निर्धारण। इसी विषय को लेकर गौतम ने जिज्ञासा की और महावीर ने उसका उत्तर दिया। आयुष्य का निर्धारण वर्तमान जीवन में हो जाता है। उसी के आधार पर जीव परलोक की यात्रा शुरु करता है। आयुष्य का निर्धारण न होने पर जीव परलोक की यात्रा का प्रारम्भ नहीं कर सकता। इसलिए उपपद्यमान और उपपन्न-ये दोनों अवस्थाएं आयुष्य-निर्धारण के लिए अनुपयुक्त है। वर्तमान जीवन की आयु की सम्पन्नता और मृत्यु दोनों समानार्थक हैं। पुनर्जन्म के लिए यात्रा करने वाला जीव अपनी यात्रा सायुष्क अवस्था में प्रारम्भ करता है।' यह नियम वर्तमान सूत्र के प्रतिपाद्य का संवादी है। विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य भ०५/५६-६१ का भाष्य । उपपद्यमान और उपपन्न के मध्य में भेदरेखा क्या है? इसका प्राचीन ग्रन्थ में कोई समाधान उपलब्ध नहीं है। अनुमान के आधार पर यह समाधान प्रस्तुत किया जा सकता है-अपर्याप्त अवस्था उपपद्यमान अवस्था है और पर्याप्त अवस्था उपपन्न अवस्था है। १०२. जीवे णं भंते ! जे भविए नेरइएसु जीवः भदन्त ! यः भव्यः नैरयिकेषु उपपत्तुं, उववज्जित्तए, से णं भंते ! किं इहगए नेर- स भदन्त ! किम् इहगतः नैरयिकायुः प्रति- इयाउयं पडिसंवेदेइ ? उववज्जमाणे नेरइयाउयं संवेदयति? उपपद्यमानः नैरयिकायुः प्रतिपडिसंवेदेइ? उववन्ने नेरइयाउयं पडिसंवेदेइ? संवेदयति? उपपन्नः नैरयिकायुः प्रति- संवेदयति? १०२. 'भन्ते! जो भविक जीव नैरयिक-रूप में उपपन्न होने वाला है, भन्ते ! क्या वह यहां रहता हुआ नैरयिक-आयुष्य का प्रतिसंवेदन करता है? उपपन्न होता हुआ नैरयिक आयुष्य का प्रतिसंवेदन करता है? उपपन्न होने पर नैरयिक आयुष्य का प्रतिसंवेदन करता गोयमा ! नो इहगए नेरइयाउयं पडिसंवेदेइ, गौतम ! नो इहगतः नैरयिकायुः प्रतिउववज्जमाणे नेरइयाउयं पडिसंवेदेइ, उववन्ने संवेदयति, उपपद्यमानः नैरयिकायुः प्रति गौतम ! वह यहां रहता हुआ नैरयिक आयुष्य का प्रतिसंवेदन नहीं करता, उपपन्न होता हुआ नैरयिक १.भ.५/५६-६२। Jain Education Intemational ucation Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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