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श.७ : उ.६ : सू.१०२-१०५
वि नेरइयाउयं पडिसंवेदेइ । एवं जाव वेमा- णिएसु ।
संवेदयति, उपपन्नः अपि नैरयिकायुः प्रतिसंवेदयति। एवं यावद् वैमानिकेषु।
भगवई आयुष्य का प्रतिसंवेदन करता है, उपपन्न होने पर भी नैरयिक आयुष्य का प्रतिसंवेदन करता है। इसी प्रकार यावत् वैमानिकों के लिए यही नियम है।
भाष्य
१. सूत्र १०२
प्रत्येक जीव वर्तमान जीवन में ही भवसंबंधी आयुष्य का प्रतिसंवेदन करता है। भावी जीवन के आयुष्य का वर्तमान जीवन में प्रतिसंवेदन नहीं
करता। उपपद्यमान और उपपन्न दोनों अवस्थाएं वर्तमान जीवन की हैं । इसलिए उन दोनों अवस्थाओं में वर्तमान आयुष्य का प्रतिसंवेदन करता है। द्रष्टव्य भ०५/५७-५८ का भाष्य ।
१०३. जीवे णं भंते ! जे भविए नेरइएसु उवव- जीवः भदन्त! यः भव्यः नैरयिकेषु उपपत्तुं, १०३. ' भन्ते ! जो भविक जीव नैरयिक रूप में उपपन्न ज्जित्तए, से णं भंते ! किं इहगए महावेदणे? सभदन्त! किम् इहगतः महावेदनः? उपपद्य- होने वाला है, भन्ते! क्या वह यहां रहता हुआ (मृत्युक्षण उववज्जमाणे महावेदणे? उववन्ने महावेदणे? मानः महावेदनः ? उपपन्नः महावेदनः ? में) महावेदना वाला होता है ? उपपन्न होता हुआ
महावेदना वाला होता है ? उपपन्न होने पर महावेदना
वाला होता है? गोयमा ! इहगए सिय महावेदणे सिय अप्प- गौतम! इहगतः स्यान् महावेदनः स्याद् गौतम! वह यहां रहता हुआ स्यात् महावेदना वाला वेदणे, उववज्जमाणे सिय महावेदणे सिय अल्पवेदनः, उपपद्यमानः स्यात् महावेदनः होता है, स्यात् अल्पवेदना वाला होता है। उपपन्न होता अप्पवेदणे, अहे णं उववन्ने भवइ तओ पच्छा स्याद् अल्पवेदनः, अथ उपपन्नः भवति हुआ स्यात् महावेदना वाला होता है, स्यात् अल्पवेदना एगंतदुक्खं वेदणं वेदेंति, आहच्च सायं ॥ ततः पश्चाद् एकान्तदुक्खां वेदनां वेदयति, वाला होता है। उपपन्न होने के पश्चात् एकान्त दुःखद
आहत्य साताम्।
वेदना का वेदन करता है और कदाचित् सात वेदना का वेदन करता है।
१०४. जीवे णं भंते ! जे भविए असुरकुमारेसु जीवः भदन्त! यः भव्यः असुरकुमारेषु उप- १०४. भन्ते ! जो भविक जीव असुरकुमारों में उपपन्न उववज्जित्तए, पुच्छा।
पत्तुं, पृच्छा!
होने वाला है, पृच्छा। गोयमा ! इहगए सिय महावेदणे सिय अप्प- गौतम! इहगतः स्यान् महावेदनः स्याद् गौतम ! वह यहां रहता हुआ स्यात् महावेदना वाला वेदणे, उववज्जमाणे सिय महावेदणे सिय अल्पवेदनः, उपपद्यमानः स्यान् महावेदनः होता है, स्यात् अल्पवेदना वाला होता है। उपपन्न होता अप्पवेदणे, अहे णं उववन्ने भवइ तओ पच्छा स्याद् अल्पवेदनः, अथ उपपन्नः भवति ततः हुआ स्यात् महावेदना वाला होता है, स्यात् अल्पवेदना एगंतसातं वेदणं वेदेति, आहच्च असायं । पश्चाद् एकान्तसातां वेदनां वेदयति, आहत्य वाला होता है, उपपन्न होने के पश्चात् एकान्त सुखद एवं जाव थणियकुमारेसु॥
असाताम्। एवं यावत् स्तनितकुमारेषु। वेदना का वेदन करता है और कदाचित् असात वेदना
का वेदन करता है। इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों के लिए यही नियम है।
१०५. जीवे णं भंते ! जे भविए पुढविक्काइएसु जीवः भदन्त! यः भव्यः पृथिवीकायिकेषु १०५. भन्ते ! जो भविक जीव पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न उववज्जित्तए, पुच्छा।
उपपत्तुं, पृच्छा।
होने वाला है, पृच्छा। गोयमा! इहगए सिय महावेदणे सिय अप्प- गौतम! इहगतः स्यान् महावेदनः स्याद् गौतम ! वह यहां रहता हुआ स्यात् महावेदना वाला वेदणे, एवं उववज्जमाणे वि, अहे णं उववन्ने अल्पवेदनः, एवं उपपद्यमानः अपि, अथ होता है, स्यात् अल्पवेदना वाला होता है। इसी प्रकार भवइ तओ पच्छा वेमायाए वेदणं वेदेति। एवं उपपन्नः भवति ततः पश्चाद् विमात्रया वेदनां उत्पन्न होता हुआ भी स्यात् महावेदना वाला होता है, जाव मणुस्सेसु। वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणि- वेदयति। एवं यावद् मनुष्येषु। वानमन्तर- स्यात् अल्पवेदना वाला होता है, उत्पन्न होने के पश्चात् एसु जहा असुरकुमारेसु॥ -ज्योतिषिक-वैमानिकेषु यथा असुरकुमारेषु। विभिन्न मात्रा वाली वेदना का वेदन करता है। इसी
प्रकार यावत् मनुष्यों के लिए यही नियम है। व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों में असुरकुमार के समान वक्तव्यता।
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