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________________ श.६: उ.७: सू.१३५ २९६ भगवई ३. सुषम-दुःषमा विकास की प्रधानता और ह्रास की अल्पता ४. दु:षम-सुषमा वाला कालखण्ड हास की प्रधानता और विकास की अल्पतावाला कालखण्ड दो कोटिकोटि सागर एक कोटिकोटि सागर में बयालीस हजार वर्ष कम इक्कीस हजार वर्ष इक्कीस हजार वर्ष ह्रासका कालखण्ड ५. दु:षमा ६. दु:षम-दु:षमा एकान्त हास का कालखण्ड उत्सर्पिणी-हास से विकास की ओर अर विकास-हास कालमान एकान्त ह्रास का कालखण्ड १. दुःषम-दुःषमा २. दुःषमा ३. दु:षम-सुषमा हास का कालखण्ड हास की प्रधानता और विकास की अल्पतावाला कालखण्ड विकास की प्रधानता और ह्रास की अल्पता वाला कालखण्ड इक्कीस हजार वर्ष इक्कीस हजार वर्ष एक कोटिकोटि सागर में बयालीस हजार वर्ष कम दो कोटिकोटि सागर ४. सुषम-दु:षमा ५. सुषमा विकास का कालखण्ड तीन कोटिकोटि सागर चार कोटिकोटि सागर ६. सुषम-सुषमा एकान्त विकास का कालखण्ड सुषम-सुषमा में भरतवर्ष-पद १३५. 'भन्ते ! जम्बूद्वीप द्वीप में इस अवसर्पिणी के सुषम-सुषमा काल की प्रकृष्ट अवस्था में भरतवर्ष के आकार और भाव का अवतरण कैसा था? सुसम-सुसमाए भरहवास-पदं सुषम-सुषमायां भरतवर्ष-पदम् १३५. जंबुद्दीवेणं भंते! दीवे इमीसे ओसप्पि- जम्बूद्वीपे भदन्त ! द्वीपे अस्याम् अवसर्पि- णीए सुसम-सुसमाए समाए उत्तिमट्ठपत्ताए, ण्याम् सुषम-सुषमायां समायां उत्तमार्थ- भरहस्स वासस्स केरिसए आगारभावपडो- प्राप्तायां भरतस्य वर्षस्य कीदृश: आकारयारे होत्था? भावप्रत्यवतारः अभवत्? गोयमा! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे होत्था, गौतम! बहुसमरमणीय भूमिभाग: अभवत्, से जहानामए-आलिंगपुक्खरे ति वा, एवं तद् यथानाम---आलिङ्गपुष्करः इति वा, उत्तरकुरुवत्तव्वया नेयव्वा जाव-तत्थ णं एवम् उत्तरकुरुवक्तव्यता ज्ञातव्या यावत् तत्र बहवे भारया मणुस्सा मणुस्सीओ य आसयति बहव: भारता: मनुष्या: मानुष्य: च आसयंति चिट्ठति निसीयंति तुयटॅति हसंति रमंति श्रयन्ति शेरते तिष्ठन्ति निषीदन्ति त्वग्वललंति। तीसे णं समाए भारहे वासे तत्थ- तयन्ति हसन्ति रमन्ते ललन्ते। तस्यां समायां तत्थ देसे-देसे तहिं-तहिं बहवे उद्दाला को- भारते वर्षे तत्र-तत्र देशे-देशे तत्र-तत्र बहवः द्दाला जाव कुस-विकुस विसुद्धरुक्खमूला जाव 'उद्दाला' 'कोद्दाला' यावत् कुश-विकुशछविहा मणुस्सा अणुसज्जित्था, तं जहा-- -विशुद्धक्षमूलानि यावत् षड्विधाः मनुपम्हगंधा, मियगंधा, असमा, तेतली, सहा, ध्या: अनुषक्तवन्त: तद् यथा—पद्मसणिचारी। गन्धयः, मृगगन्धय: अममाः, तेजस्तलिनाः, सहा:, शनैश्चारिणः। गौतम! उस समय का भूमिभाग समतल और रमणीय था जैसे मुरज (वाद्य) का मुखपुटा इस प्रकार उत्तरकुरु क्षेत्र की वक्तव्यता ज्ञातव्य है यावत् भरतवर्ष में रहने वाले अनेक भारतीय मनुष्य और स्त्रियां उस भूमिभाग पर आश्रय लेती हैं, सोती हैं, ठहरती हैं, बैठती हैं, करवट लेती हैं, हंसती है, क्रीडा करती हैं, खेलती हैं। उस समय भारत वर्ष के खण्ड-खण्ड, प्रदेशप्रदेश और इधर-उधर अनेक उद्दाल, कोद्दाल यावत् दर्भ और बल्वज आदि तृणों से रहित मूल वाले वृक्ष हैं यावत् छह जाति के मनुष्यों की परम्परा चल रही थी, जैसे—पद्मगन्ध, मृगगंध, अमम, तेतली, सह, शनैश्चारी। Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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