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भगवई
१. सूत्र ९३५
प्रस्तुत आलापक में अवसर्पिणी के सुषमसुषमा नामक अर की स्थिति का चित्रण किया गया है। उस समय भूमिभाग पूर्ण समतल था । शब्द - विमर्श
प्रकृष्ट अवस्था (उत्तिम ) प्राप्त आयुष्य आदि का उत्कर्षकाल भ. ६/९९७ में उत्तमकडपत्ता प्रयोग मिलता है।
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भाष्य
आकार और भाव में अवतरण (आगारभावपडोयारे)आकृति और भाव (पर्याय) का अवतरण
प्राय: समतल और रमणीय ( बहुसमरमणिज्ज ) – वृत्तिकार 'बहु' का अर्थ 'अत्यन्त' किया है। किन्तु आलिंग के संदर्भ में इसका अर्थ 'प्राव' उचित लगता है।
मुरज (वाद्य) का मुखपुट (आलिंगपुक्खरे) मृदंग तीन प्रकार का होता है — १. अंकी २. आलिंगी ३. ऊर्ध्वक । अंकी मृदंग हरीतकी 1 (हरे) के आकार के समान अर्थात् बीच में मोटा तथा दोनों छोर में पतला होता है। आलिंगी मृदंग गोपुच्छ के आकार के समान एक भाग में मोटा और दूसरे भाग में क्रमश: पतला होता है। ऊर्ध्वक मृदंग यव (जौ) के आकार के समान होता है।
'पुष्कर' का अर्थ मृदंग का मुख है। अभयदेवसूरि ने आलिंगपुष्कर का अर्थ ' मृदंग का मुखपुट' किया है।"
३. वही, ६ / १३५ - - बहुसमः — अत्यन्तसमः ।
४. वही, ६ / १३५ - 'आलिंगपुक्खरे' त्ति मुरजमुखपटम् ।
५. जै. आ.व. को ।
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१३६. सेवं भंते सेवं भंते! ति।।
१. भ. वृ. १३५ - उत्तमान् — तत्कालापेक्षयोत्कृष्टानर्थान् आयुष्यकादीन् प्राप्ता उत्तमार्थप्राप्ता उत्तमकाष्ठां प्राप्ता वा प्रकृष्टावस्थां गता तस्याम् ।
२. वही, ६ / १३५ - आकारस्य - आकृतेर्भावाः पर्यायाः, अथवाऽऽकाराश्च भावाश्च आकारभावास्तेषां प्रत्यवतारः — अवतरणमाविर्भाव आकारभावप्रत्यवतार: ।
उद्दाल-वृक्षविशेष | लीसोड़ा वृच्चा ढा कोद्दाल-वृक्षविशेष | कोविदार । ' कुस - दर्भ (घास ) ।
श. ६ : उ. ७: सू. १३५-१३६
विकुस - बल्वज नाम की घास ।
विसुद्ध यहाँ प्रकरणवश 'विशुद्ध' का अर्थ 'रहित है। 'कुस - विकुस' विसुद्ध — इसका अर्थ है कुश - विकुश नामक घास से रहित।
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परम्परा चल रही थी ( अणुसज्जित्था ) - पूर्वकाल से कालान्तर में अनुवृत्त हो रहे थे।
२. पद्मगन्ध (पम्हगंधा) शनैश्चारी (सणिचारी) पद्मगन्ध से लेकर शनैश्चारी तक मनुष्यों की छह जातियां हैंपद्मगन्ध — इस जाति के मनुष्यों के शरीर में कमल के समान
गन्ध होती है।
.......
मृगगन्ध — इस जाति के मनुष्यों के शरीर में कस्तूरी के समान गन्ध होती है।
अमम- -इस जाति के मनुष्य ममत्व रहित होते हैं। तेतली — इस जाति के मनुष्य तेजस्वी और रूपवान् होते हैं। सह- इस जाति के मनुष्य सहिष्णु और शक्तिशाली होते हैं। शनैश्चारी — इस जाति के मनुष्यों में उत्सुकता जनित त्वरा नहीं
होती ।
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ।
६. वही,
७. भ. बृ.६ / १३५ - कुशा: - दर्भाः विकुशा - बल्वजादय: तृणविशेषास्तैर्विशुद्धानि - तदपेतानि वृक्षमूलानि तदधोभागा येषां ते तथा ।
८. वही, ६ / १३५ अनुसक्तवन्तः पूर्वकालात् कालान्तरमनुवृत्तवन्तः ।
९. वही, ६/१३५ -- ' 'पम्हगन्ध' त्ति पद्मसमगन्धयः 'मियगंध' त्ति मृगमदगन्धयः । 'अमम ति ममकाररहिता: 'तेयतलि' त्ति तेजश्च तलं च रूपं येषामस्ति ते तेजस्तलिनः । 'सह' त्ति सहिष्णवः समर्था: । 'सणिचारे 'त्ति शनैः मन्दमुत्सुकत्वाभावाच्चरन्तीत्येवंशीलाः शनैश्चारिणः ।
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१३६, भन्ते । वह ऐसा ही है, भन्ते! वह ऐसा ही है।
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