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भगवई
इन दो समीकरणों के मिलाने से,
ज = प
शब्द-विमर्श
ज= (अं) (पु.)
अर
२
१. १ कोटाकोटि = १०
३ (लघु प
अ
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प
ज प
सागरोपम—१० कोटाकोटि पल्योपमों का एक सागरोपम होता है। पल्योपम के सूक्ष्म- बादर, उद्धार और अद्धा तथा व्यवहार, उद्धार और अद्धा होते हैं उसी प्रकार सागरोपम के हैं।
श्वेताम्बर - परम्परा के अनुसार
१० कोटाकोटि बादर उद्धार पल्योपम = १ बादर उद्धार सागरोपम १० कोटाकोटि सूक्ष्म उद्धार पल्योपम = १ सूक्ष्म उद्धार सागरोपम • कोटाकोटि बादर अद्धा पल्योपम = १ बादर अद्धा सागरोपम १० कोटाकोटि सूक्ष्म अद्धा पल्योपम = १ सूक्ष्म अद्धा सागरोपम दिगम्बर- परम्परा के अनुसार
१०
१० कोटाकोटि व्यवहार पल्योपम = १ बादर व्यवहार सागरोपम १०
• कोटाकोटि उद्धार पल्योपम = १ उद्धार सागरोपम १० कोटाकोटि अद्धा पल्योपम १ अद्धा सागरोपम
१. सुषम- सुषमा २. सुषमा
१४
}
३ लघु २
2.)
जंबुद्दीपण्णत्ती के अनुसार वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, संहनन, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार पराक्रम में अनन्तगुना वृद्धि और हास होता है।
अकलंक ने इस परिवर्तन को कालहेतुक बतलाया है। किन्तु इससे प्रश्न का समाधान नहीं होता, वास्तव में भौगोलिक स्थिति, पृथ्वी का वातावरण और सौरमण्डल का विकिरण— ये सब परिवर्तन के हेतु बनते हैं। क्षेत्र और काल (वातावरण) तीन प्रकार का होता है - १. स्निग्ध २. रूक्ष ३. स्निग्धरूक्ष । निशीथ चूर्णिकार ने लिखा है— देवकुरू और उत्तरकुरु में क्षेत्र की स्निग्धता के कारण तथा सुषमसुषमा में काल की स्निग्धता के कारण आयुष्य लम्बा होता है । ghaण्णत्ती के अनुसार जब समय रूक्ष होता है, उस स्थिति में चन्द्रमा की सर्दी और सूर्य का ताप बढ़ जाता है। भगवान् ऋषभ से पूर्व स्निग्ध-काल था इसलिए अग्नि पैदा नहीं हुई । आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार — स्निग्धरूक्ष काल के आने पर अग्नि की उत्पत्ति हुई।"
काल की स्निग्धता और रूक्षता की परिवर्तनशीलता के आधार पर भरत, ऐरावत क्षेत्र में क्रम चलता है। इस क्रम को अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी के बारह काल-खण्डों में प्रदर्शित किया गया है। कालखण्ड की संज्ञा अर (आरा) है। जैसे चक्र के आरे होते हैं, वैसे ही अवसर्पिणी उत्सर्पिणी रूपक कालचक्र के बारह अर हैं। अवसर्पिणी के छह अरों में विकास से ह्रास का क्रम चलता है। उत्सर्पिणी के छह अरों में ह्रास से विकास का क्रम चलता है।
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डार्विन आदि विकासवादी वैज्ञानिकों ने सृष्टि विकास के सिद्धान्त का न असार होते हैं (नो कुच्छेज्जा ) —— पल्य से भरे हुए बालाग्र कुथित प्रतिपादन किया। आगमकारों को केवल विकास का सिद्धान्त मान्य नहीं है,
• अथवा असार नहीं होते। वृत्तिकार ने उसके दो कारण बतलाए हैं
विकास और ह्रास दोनों का सिद्धान्त मान्य है। देखें कोष्ठक
सिद्ध--- प्रस्तुत प्रसंग में सिद्ध का अर्थ केवली है।'
समुदय समिति-समागम - पुद्गल में एकीभाव हो सकता है, इसलिए प्रस्तुत प्रसंग में समागम का अर्थ परिणमन से होने वाला एकीभाव है।'
संमृष्टपूर्ण भरा हुआ।
संनिचित — सघन किया हुआ ।
२९५
श. ६ : उ. ७ : सू. १३३, १३४
१. बालाग्रों का प्रचय सघन होने के कारण उसमें छिद्र नहीं होता। २. वायु का प्रवेश संभव नहीं होता, इसलिए वे असार नहीं होते।' कालचक्र—व्यावहारिक काल (सूर्य और चन्द्रमा की गति से होने वाला काल ) पूर्ण मनुष्य-लोक (अढ़ाई द्वीप और समुद्र) में होता है। मनुष्यलोक के कुछ क्षेत्र (भरत और ऐरावत) सौरमण्डल से अधिक प्रभावित होते हैं। वे सदा एकरूप नहीं रहते। उसमें हास और विकास का चक्र चलता है।
अकलंक के अनुसार अनुभव, आयुष्य का कालमान शरीर की लम्बाई आदि में वृद्धि और ह्रास होता रहता है।'
२. अणु. वृ. ४१८४३२
३. भ. वृ. ६ / १३४ – 'सिद्धत्ति' ज्ञानसिद्धा केवलिन इत्यर्थः न तु सिद्धा सिद्धिगता, एतेषां वदनस्यासंभवादिति ।
४. वही, ६/१३४ — समुदयाः दुव्यादिसमुदायास्तेषां समितयो — मीलनानि, तासां समागमः - परिणामवशादेकीभवनं, समुदयसमितिसमागमास्तेन या परिमाणमात्रेति गम्यते ।
५. वही, ६ / १३४ - न कुथ्येयुः प्रचयविशेषादेव शुषिराभावाद् वायोरसम्भवाच्च नासारतां गच्छेयुः।
६. त.सू. ३/२७ – भरतैरावतयोर्वृद्धिहासो षट्समयाभ्यामुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभ्याम् ।
अवसर्पिणी - विकास से ह्रास की ओर
विकास - ह्रास
एकान्त विकास का कालखण्ड विकास का कालखण्ड
कालमान
चार कोटिकोटि सागर
तीन कोटिकोटि सागर
७. त. रा. वा. ३/२७ - अनुभवः उपयोगपरिभोगसम्पत्, आयुर्जीवितपरिमाणं, प्रमाणं शरीरोत्सेध इत्येवमादिकृती मनुष्याणां वृद्धिहासौ प्रत्येतव्यौ ।
८. जंबु. २/५१, १३८ ।
९. त. रा. वा. ३/२७ किंहेतुकौ पुनस्तौ, कालहेतुकौ ।
१०. नि. चू.भाग ३, भा,गा. ३५४१ की चूर्णि - यथा देवकुरोत्तरासु क्षेत्रस्य स्निग्धगुणत्वादायुषो दीर्घत्वं, सुमसुमायां च कालस्य स्निग्धत्वाद्दीर्घत्वमायुषः ।
११. जंबु. २ / १३१ - समयलुक्खयाए णं अहियं चंदा सीयं मोच्छिहिंति, अहियं सूरिया तविस्संति। १२. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, प्रथम पर्व, श्लोक ९४४ – स्वाम्यप्यूचे स्निग्धरूक्षकालदोषोऽग्निरुत्थितः। नैकान्तरूक्षे नैकान्तस्निग्धे काले भवत्यसौ ।
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