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________________ भगवई तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं निव्वावेइ, से णं पुरिसे अप्पकम्मतराए चैव, अप्पकिरियतराए चैव, अण्णास्वतराए चैव, अन्यवेयणतराए चैव ॥ २२६. अत्थि नं भंते! अच्चित्ता दि पोग्गला ओभासंति ? उज्जोवेंति ? तवेंति ? पभासेंति? हंता अत्थि ॥ २३०. कयरे णं भंते ! ते अच्चित्ता वि पोग्गला ओभासति ? उन्नोवेति ? तवेति ? पमासेति? कालोदाई ! कुद्धस्स अणगारस्स तेय-लेस्सा निसट्टा समाणी दूरं गता दूरं निपतति, देसं गता देसं निपतति, जहिं जहिं च णं सा निपतति तहिं तहिं च णं ते अचित्ता वि पोग्गला ओभासंति, उज्जोवेंति, तवेंति, पभासेंति । एतेण कालोदाई ! ते अचिता वि पोग्गला ओभासंति, उज्जोवेंति, तवेंति, पभासेंति ॥ २३१. लए गं से कालोदाई अणगारे समर्ण भगवं महावीरं वंदइ नमस, वंदिता नमसित्ता बहूहिं चउत्थ-छट्टम - दसम दुवालसेहिं, मासद्धमास खमणेहिं विचित्तेहि तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ॥ २३२. एणं से कालोदाई ! अणगारे जाव चरमेहिं उस्सासनीसासेहि सिद्धे बुद्धे मुक्के परिनिबुडे सव्वदुक्खप्पहीणे । । २३३ सेवं भते । सेवं भते । ति ॥ Jain Education International ४०३ तत्र यः एषः पुरुषः अग्निकायं निर्वापयति, सः पुरुषः अल्पकर्मतरकः चैव, अल्पक्क्रियातरकः चैव, अल्पास्रवतरक : चैव, अल्पवेदनतरकः चैव । अस्ति भदन्त ! अचित्ताः अपि पुद्गलाः अव भासन्ते? उद्योतन्ति ? तापयन्ति ? प्रभासन्ति? हन्त अस्ति । कतरे भदन्त ! ते अचित्ताः अपि 'पुद्गलाः अवभासन्ते ? उदद्योतन्ति ? तापयन्ति ? प्रभासन्ति ? कालोदायिन् ! क्रुद्धस्य अनगारस्य तेजोलेश्या निःसृष्टा सती दूरं गता दूरं निपतति, देशं गता देशं निपतति, यत्र यत्र च सा निपतति, तत्रतत्र च ते अचित्ताः अपि पुद्गलाः अवभासन्ते, उद्योतन्ते, तापयन्ति, प्रभासन्ते एतेन कालोदायिन् ! ते अचित्ताः अपि पुद्गताः अबभासन्ते, उद्योतन्ते, तापयन्ति, प्रभासन्ते । ततः स कालोदायी अनगारः श्रमण भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति बन्दित्वा नमस्यित्वा बहुभिः चतुर्थ- षष्ठाष्टम- दशम- द्वादशैः मासार्द्धमासक्षपणे विचित्रैः तप कर्मभिः आत्मानं भावयन् विहरति । ततः स कालोदायी अनगारः यावच् चरमैः उच्छ्वास- निश्वासैः सिद्धः बुद्धः मुक्तः परिनिर्वृतः सर्वदुप्रक्षीणः। तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति । For Private & Personal Use Only श. ७: उ. १०: सू.२२८-२३३ है, वह पुरुष अल्पतर कर्म, अल्पतर क्रिया, अल्पतर आश्रव और अल्पतर वेदना वाला होता है। २२६. भन्ते ! क्या अचित्त पुद्गल भी वस्तु को अवभासित करते हैं ? उद्योतित करते हैं ? तप्त करते हैं ? प्रभासित करते हैं ? करते हैं। २३०. भन्ते ! वे कौन से अचित्त पुद्गल भी वस्तु को अवभासित करते हैं? उद्योतित करते है ? तन्त करते है? प्रभासित करते हैं? कालोदायी ! क्रुद्ध अनगार ने तेजोलेश्या का निसर्जन किया, वह दूर जाकर दूर देश में गिरती है, पार्श्व में जाकर पार्श्व देश में गिरती है। वह जहां-जहां गिरती है, वहां-वहां उसके अचित्त पुद्गल भी वस्तु को अवभासित करते हैं, उद्योतित करते हैं रात करते हैं और प्रभासित करते हैं। कालोदायी ! इस प्रकार वे अचित्त पुद्गल भी वस्तु को अवभासित करते हैं, उद्योतित करते हैं, तप्त करते हैं और प्रभासित करते हैं। २३१. कालोदायी अनगार श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन नमस्कार करता है, वन्दन नमस्कार कर अनेक चतुर्थभक्त, षष्ठभक्त, अष्टमभक्त, दशमभक्त, द्वादशभक्त, अर्धमास और मासक्षपण - इस प्रकार विचित्र तपःकर्म द्वारा आत्मा को भावित करता हुआ विहार कर रहा है। २३२. कालोदायी अनगार यावत् चरम उच्छ्वास-निःश्वासों के साथ सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त, परिनिर्वृत और सब दुःखों का नाश करने वाला हो गया। २३३. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है। www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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