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________________ श.७:उ.१०:सू.२२७,२२८ ४०२ भगवई सरिया सरिसभंडमत्तोवगरणा अण्णमण्णेणं दृग्वयसौ सदृशभाण्डामत्रोपकरणौ अन्योन्यं सद्धिं अगणिकायं समारंभंति । तत्थ णं एगे सार्द्धम् अग्निकार्य समारभेते । तत्रा एकः पुरिसे अगणिकायं उज्जालेइ, एगे पुरिसे पुरुषः अग्निकायम् उज्ज्वलयति, एकः पुरुषः अगणिकायं निव्वावेइ। एएसिणं मंते! दोण्हं अग्निकार्य निर्वापयति। एतयोः भदन्त ! द्वयोः पुरिसाणं कयरे पुरिसे महाकम्भतराए चेव? पुरुषयोः कतरः पुरुषः महाकर्मतरकः चैव? महाकिरियतराए चेव? महासवतराए चेव? महाक्रियातरकः चैव? महास्रवतरकः चैव? महावेयणतराए चेव? कयरे वा पुरिसे अप्प- महावेदनतरकः चैव? कतरो वा पुरुषः कम्मतराए चेव? अप्पकिरियतराए चेव ? अल्पकर्मतरकः चैव? अल्पक्रियातरकः चैव? अप्पासवतराए चेव? अप्पवेयणतराए चेव? अल्पास्रवतरकः चैव? अल्पवेदनतरकश्चैव? जे वा से पुरिसे अगणिकायं उज्जालेइ, जे वा यो वा सः पुरुषः अग्किायं उज्ज्वलयति यो वा से पुरिसे अगणिकायं निव्वावेइ ? सः पुरुषः अग्निकार्य निर्वापयति? समान वय वाले और समान भाण्ड, पात्र, उपकरण वाले हैं, परस्पर मिलकर अग्निकाय का समारम्भ करते हैं। उनमें एक पुरुष अग्निकाय को प्रज्वलित करता है और दूसरा पुरुष उसे बुझाता है। भन्ते ! इन दोनों पुरुषों में कौन-सा पुरुष महत्तर कर्म वाला होता है ? महत्तर क्रिया वाला होता है ? महत्तर आश्रव वाला होता है ? महत्तर वेदना वाला होता है ? और कौन-सा पुरुष अल्पतर कर्म वाला होता है ? अल्पतर क्रिया वाला होता है? अल्पतर आश्रव वाला होता है ? अल्पतर वेदना वाला होता है ? जो पुरुष अग्निकाय को प्रज्वलित करता है तथा जो पुरुष अग्निकाय को बुझाता है? कालोदाई ! तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं कालोदायिन् ! तत्रयः एषः पुरुषः अग्निकायम् उज्जालेइ, से णं पुरिसे महाकम्मतराए चेव, उज्ज्वलयति, सः पुरुषः महाकर्मतरकः चैव, महाकिरियतराए चेव, महासवतराए चेव, महाक्रियातरकः चैव, महास्रवतरकः चैव, महावेयणतराए चेव। तत्थ णं जे से पुरिसे महावेदनतरकः चैव, तत्र यः एषः पुरुषः अगणिकायं निव्वावेइ, से णं पुरिसे अप्प- अग्निकार्य निर्वापयति, सः पुरुष अल्पकर्मकम्मतराए चेव, अप्पकिरियतराए चेव तरकःचैव, अल्पक्रियातरकः चैव अल्पास्रवअप्पासवतराए चेव, अप्पवेयणतराए चेव॥ तरकः चैव, अल्पवेदनतरकः चैव । कालोदायी ! उनमें जो पुरुष अग्निकाय को प्रज्वलित करता है, वह पुरुष महत्तर कर्म, महतर क्रिया, महत्तर आश्रव और महत्तर वेदना वाला होता है। जो पुरुष अग्निकाय को बुझाता है, वह पुरुष अल्पतर कर्म, अल्पतर क्रिया अल्पतर आश्रव और अल्पतर वेदना वाला होता है। २२८. से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चइ-तत्थ णं तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-तत्र यः जे से पुरिसे अगणिकायं उज्जालेइ, से णं एषः पुरुषः अग्निकायम् उज्ज्वलयति, सः पुरिसे महाकम्मतराए चेव? महाकिरियतराए पुरुषः महाकर्मतरकः चैव, महाक्रियातरकः चेव? महासवतराए चेव? महावेयणतराए चेव? चैव, महास्रवतरकः चैव, महावेदनतरकः तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं निव्वावेइ, चैव? तत्र यः एषः पुरुषः अग्निकार्य निर्वासे णं पुरिसे अप्पकम्मतराए चेव ? अप्प- पयति सः पुरुषः अल्पकर्मतरकः चैव, अल्पकिरियतराए चेव ? अप्पासवतराए चेव ? क्रियातरकः चैव, अल्पास्रवतरकः चैव, अल्पअप्पवेयणतराए चेव? वेदनतरकः चैव। कालोदाई ! तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं कालोदायिन् ! तत्र यः एषः पुरुषः अग्निकायम् उज्जालेइ, से णं पुरिसे बहुतरागं पुढविक्कायं उज्ज्वलयति, सः पुरुषः बहुतरकं पृथ्वीकार्य समारभति, बहुतरागं आउक्कायं समारभति, समारभते, बहुतरकम् अप्कायं समारभते, अप्पतरागं तेउक्कायं समारभति, बहुतरागं अल्पतरकं तेजस्कायं समारभते, बहुतरक वाउकायं समारभति, बहुतरागं वणस्सइकायं वायुकायं समारभते बहुतरकं वनस्पतिकायं समारभति, बहुतरागं तसकायं समारभति। समारभते, बहुतरकं त्रसकाय समारभते। २२८, भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है जो पुरुष अग्निकाय को प्रज्ज्वलित करता है, वह पुरुष महत्तर कर्म वाला होता है ? महत्तर क्रिया वाला होता है? महत्तर आश्रव वाला होता है ? महत्तर वेदनावाला होता है? जो पुरुष अग्निकाय को बुझाता है, वह पुरुष अल्पतर कर्म वाला होता है ? अल्पतर क्रिया वाला होता है ? अल्पतर आश्रव वाला होता है ? अल्पतर वेदना वाला होता है? कालोदायी ! जो पुरुष अग्निकाय को प्रज्वलित करता है, वह पुरुष बहुतर पृथ्वीकाय का समारम्भ करता है, बहुतर अप्काय का समारम्भ करता है, अल्पतर तेजस्काय का समारम्भ करता है, बहुतर वायुकाय का समारम्भ करता है, बहुतर वनस्पतिकाय का समारम्भ करता है, बहुतरत्रसकाय का समारम्भ करता तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं निव्वावेइ, तत्र यः एषः पुरुषः अग्निकार्य निर्वापयति, से णं पुरिसे अप्पतरागं पुढविकायं समारभति, सः पुरुषः अल्पतरकं पृथ्वीकार्य समारभते, अप्पतरागं आउक्कायं समारभति, बहुतरागं अल्पतरकम् अपकायं समारभते, बहुतरक तेउक्कायं समारभति, अप्पतरागं वाउकायं तेजस्कायं समारभते, अल्पतरकं वायुकायं समारमति, अप्पतरागं वणस्सइकायं समार- समारभते, अल्पतरकं वनस्पतिकायं समारभति, अप्पतरागं तसकायं समारभति। भते, अल्पतरकं त्रसकायं समारभते । से तेणटेणं कालोदायी ! एवं वुच्चइ-तत्थ तत् तेनार्थेन कालोदायिन् ! एवमुच्यते-तत्र णं जे से पुरिसे अगणिकायं उज्जालेइ, से णं यः एषः पुरुषः अग्निकायम् उज्ज्वलयति, सः पुरिसे महाकम्मतराए चेव, महाकिरियतराए पुरुषः महाकर्मतरकः चैव, महाक्रियातरकः चेव, महासवतराए चेव, महावेयणतराए चेव। चैव, महास्रवतरकः चैव, महावेदनतरकः चैव। जो पुरुष अग्निकाय को बुझाता है, वह पुरुष अल्पतर पृथ्वीकाय का समारम्भ करता है, अल्पतर अपकाय का समारम्भ करता है, बहुतर तेजस्काय का समारम्भ करता है, अल्पतर वायुकाय का समारम्भ करता है, अल्पतर वनस्पतिकाय का समारम्भ करता है. अल्पतर त्रसकाय का समारम्भ करता है। कालोदायी! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है--जो पुरुष अग्निकाय को प्रज्ज्वलित करता है, वह पुरुष महत्तर कर्म, महत्तर क्रिया, महत्तर आश्रव, महत्तर वेदना वाला होता है। जो पुरुष अग्निकाय को बुझाता Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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