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भगवई
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श.७ : उ.७ : सू.१३८-१४५
गोयमा ! जीवा कामी वि, भोगी वि॥
गौतम ! जीवाः कामिनः अपि, भोगिनः अपि।
गौतम ! जीव कामी भी हैं और भोगी भी हैं।
१३६. से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-जीवा कामी तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-जीवाः १३६ भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-जीव वि? भोगी वि? कामिनः अपि ? भोगिनः अपि?
कामी भी हैं और भोगी भी हैं? गोयमा ! सोइंदिय-चक्खिदियाइं पडुच्च कामी, गौतम ! श्रोत्रेन्द्रिय-चक्षुरिन्द्रिये प्रतीत्य गौतम ! श्रोत्र-इन्द्रिय और चक्षु-इन्द्रिय की अपेक्षा जीव घाणिंदिय-जिभिदिय-फासिंदियाइं पडुच्च कामिनः, घ्राणेन्द्रिय-जिहेन्द्रिय-स्पर्शनेन्द्रियाणि कामी हैं। घ्राण-इन्द्रिय, जिह्य-इन्द्रिय और स्पर्शनइन्द्रिय भोगी। से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ- प्रतीत्य भोगिनः। तत् तेनार्थेन गौतम! एव- की अपेक्षा जीव भोगी हैं। गौतम ! इस अपेक्षा से यह जीवा कामी वि, भोगी वि॥
मुच्यते-जीवाः कामिनः अपि, भोगिनः अपि। कहा जा रहा है-जीव कामी भी हैं, और भोगी भी
१४०. नेरइया णं भंते ! किं कामी ? भोगी?
एवं चेव जाव थणियकुमारा ॥
नैरयिकाः भदन्त ! कि कामिनः? भोगिनः? एवं चैव यावत् स्तनितकुमाराः ।
१४०. भन्ते ! नैरयिक कामी है अथवा भोगी?
नैरयिक से लेकर स्तनितकुमार तक जीव की भांति वक्तव्य है।
१४१. पुढविकाइयाणं-पुच्छा। गोयमा ! पुढविकाइया नो कामी, भोगी॥
पृथ्वीकायिकानां-पृच्छा। गौतम ! पृथ्वीकायिकाः नो कामिनः, भोगिनः।
१४१. पृथ्वीकायिक जीवों के विषय में पृच्छा।
गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव कामी नहीं हैं, भोगी हैं।
१४२. से केणटेणं जाव भोगी?
तत् केनार्थेन यावद् भोगिनः? गोयमा ! फासिंदियं पडुच्च। से तेणटेणं जाव गौतम ! स्पर्शनेन्द्रियं प्रतीत्य । तत् तेनार्थेन भोगी। एवं जाव वणस्सइकाइया। बेइंदिया एवं यावद् भोगिनः। एवं यावद् वनस्पतिकायिचेव, नवरं-जिभिदिय-फासिंदियाइं पडुच्च। काः। द्वीन्द्रियाः एवं चैव, नवरं जिहेन्द्रियतेइंदिया वि एवं चेव, नवरं-घाणिंदिय-जिन्मि- -स्पर्शनेन्द्रिये प्रतीत्य । त्रीन्द्रियाः अपि एवं दिय-फासिंदियाइं पडुच्च ॥
चैव, नवरं-घ्राणेन्द्रिय-जिहेन्द्रिय-स्पर्शनेन्द्रियाणि प्रतीत्य।
१४२. भन्ते ! पृथ्वीकायिक जीव किस अपेक्षा से भोगी है?
गौतम ! स्पर्शन इन्द्रिय की अपेक्षा से। उनमें स्पर्शनइन्द्रिय है, इसलिए वे भोगी हैं। अपकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों की वक्तव्यता पृथ्वीकायिक जीवों के समान है। द्वीन्द्रिय जीवों के विषय में यही वक्तव्यता है, केवल इतना विशेष है-वे जिह्म और स्पर्शन-इन दो इन्द्रियों की अपेक्षा से भोगी हैं। त्रीन्द्रिय जीवों के विषय में भी यही वक्तव्यता है, केवल इतना विशेष है-वे घ्राण, जिह्म और स्पर्शन-इन तीन इन्द्रियों की अपेक्षा से भोगी
१४३. चउरिंदियाणं-पुच्छा।
गोयमा ! चउरिंदिया कामी वि, भोगी वि॥
चतुरिन्द्रियाणां-पृच्छा। गौतम ! चतुरिन्द्रियाः कामिनः अपि, भोगिनः अपि।
१४३. चतुरिन्द्रिय जीवों के विषय में पृच्छा।
गौतम ! चतुरिन्द्रिय जीव कामी भी हैं और भोगी भी
१४४. से केणटेणं जाव भोगी वि?
तत् केनार्थेन यावद् भोगिनः अपि?
गोयमा ! चक्खिदियं पडुच्च कामी, घाणिंदिय- गौतम! चक्षुरिन्द्रियं प्रतीत्य कामिनः, घ्राणे-जिब्मिदिय-फासिंदियाई पडुच्च भोगी। से न्द्रिय-जिलेन्द्रिय-स्पर्शनेन्द्रियाणि प्रतीत्य भोगितेणद्वेणं जाव भोगी वि। अवसेसा जहा जीवा नः। तत् तेनार्थेन यावद् भोगिनः अपि। अवजाव वेमाणिया॥
शेषाः यथा जीवाः यावद् वैमानिकाः।
१४४. भन्ते ! चतुरिन्द्रिय जीव किस अपेक्षा से कामी भी हैं, भोगी भी हैं ? गौतम! वे चक्षु-इन्द्रिय की अपेक्षा से कामी हैं, घ्राण, जिह्य और स्पर्शन-इन्द्रियों की अपेक्षा से भोगी हैं। गौतम ! इस अपेक्षा से वे कामी भी हैं, भोगी भी है। अवशिष्ट वैमानिक तक सभी दण्डकों की वक्तव्यता जीव के समान है।
१४५. एएसि णं भंते ! जीवाणं कामभोगीणं, एतेषां भदन्त ! जीवानां कामभोगिनां नोका- १४५. भन्ते ! कामभोगी, नो कामी, नो भोगी और भोगीनोकामीणं, नोभोगीणं, भोगीण य कयरे कयरे- मिना, नो भोगिनां, भोगिनां च कतरे कतरेभ्यः इन जीवों में कौन किससे अल्प, अधिक, तुल्य हिंतो अप्पा वा ? बहुया वा? तुल्ला वा? अल्पाः वा ? बहुकाः वा? तुल्याः वा? विशेषा- और विशेषाधिक हैं? विसेसाहिया वा?
धिकाः वा?
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