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श.७: उ.७ : सू.१२७-१४७
गोगमा ! सव्वत्योवा जीवा कामभोगी, नोका मी, नोभोगी अनंतगुणा, भोगी अनंतगुणा ॥
दुब्बलसरीरस्स भोगपरिव्वाय-पदं १४६. छउमत्ये णं भंते ! मणूसे जे भविए अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववज्जित्तए, से नूणं भंते! से खीणभोगी नो पभू उट्ठाणेणं, कम्मेणं, वलेणं, वीरिएणं, पुरिसक्कार - परक्कमेणं विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरितए ? से नृणं मंते एयगद्वं एवं वयह? गोयमा ! णो तिगड़े समड़े पभू नं से उद्धानेन वि, कम्मेण वि, बलेण वि वीरिएन वि, पुरि सक्कार- परक्कमेण वि अण्णयराइं विपुलाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए, तम्हा भोगी, भोगे परिच्चयमाणे महानिज्जरे, महापज्जवसा भवइ ॥
१. सूत्र १२७-१४५
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प्रस्तुत आलापक में इन्द्रिय और इन्द्रिय - विषय के संबंध की मीमांसा की गई है। पांच इन्द्रियां हैं— श्रोत्र, चक्षु, प्राण, रसन और स्पर्शन । इनके पांच विषय है शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श दर्शन युग में इन्द्रियों के प्राप्यकारी और अप्राप्यकारी होने की चर्चा विस्तार से हुई है। नैयायिक-वैशेषिक सभी इन्द्रियों को प्राप्यकारी मानते हैं। बौद्ध दर्शन के अनुसार चक्षु और श्रोत्र प्राप्यकारी नहीं हैं। जैन दर्शन में केवल चक्षु को अप्राप्यकारी माना गया है। यह ज्ञानमीमांसा का विषय है। काम और भोग की मीमांसा ज्ञानमीमांसा से भिन्न है। काम और भोग की मीमांसा में श्रोत्र और चक्षु - - ये दो इन्द्रियां कामी हैं, शेष तीन इन्द्रियां भोगी हैं। जिन विषयों की कामना की जाती है, किंतु संवेदन या अनुभव नहीं होता, वे काम कहलाते हैं। शब्द और रूप ये दो काम हैं जो विषय संवेदन उत्पन्न करते हैं, जिनका अनुभव होता है, वे भोग कहलाते हैं। गंध, रस और स्पर्श-ये तीन भोग हैं।
काम और भोग पोद्गलिक हैं, इसलिए वे रूपी हैं। चैतन्य-युक्त शब्द और रूप सचित्त तथा चैतन्य-रहित शब्द और रूप अचित्त हैं। वृत्तिकार ने सचित्त- अचित्त की व्याख्या भिन्न प्रकार से की है। उनके अनुसार समनस्क प्राणी का रूप सचित्त काम और अमनस्क प्राणी का रूप अचित्त काम है।' किंतु यह विमर्शनीय है। आगम-साहित्य में समनस्क के
१४७. आहोरिए णं भंते मनुझे जे भविए अण्णवरे देवलोएस देवत्ताए उववजित्तए, से नूणं भंते! से खीणभोगी जो पनू उड्डाणे, कम्मेणं, बलेणं, वीरिएणं, पुरिसक्कार
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गीतम! सर्वस्तोका जीवाः कामभोगिनः, नोकामिनः, नोभोगिनः अनन्तगुणाः, ' , भोगिनः
अन्नतगुणाः
भाष्य
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लिए संज्ञी और अमनस्क के लिए असंज्ञी का प्रयोग मिलता है। 'सचित्त' का प्रयोग सभी चेतनावान् प्राणियों के लिए हुआ है और 'अचित्त' का प्रयोग चेतना शून्य वस्तु के लिए हुआ है।
सजीव शरीर के रूप की अपेक्षा तथा जीव-शब्द की अपेक्षा काम जीव भी हैं। चित्र, पुतली आदि के रूप की अपेक्षा तथा अजीव - शब्द की अपेक्षा काम अजीव भी हैं।
भोग का विषय काम की भांति ही वक्तव्य है।
जीव कामी ओर भोगी दोनों प्रकार के होते हैं। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और त्रीन्द्रिय जीव केवल भोगी होते हैं। चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय जीव कामी और भोगी दोनों प्रकार के होते हैं।
भगवई
गौतम ! कामभोगी जीव सबसे अल्प हैं। नोकामी, नोभोगी उनसे अनन्तगुना अधिक हैं। भोगी उनसे अनन्तगुना अधिक हैं।
कामी और भोगी जीव सबसे अल्प हैं। इसका हेतु यह है चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय जीव सबसे अल्प होते हैं। सिद्ध जीव नोकामी और नोभोगी हैं। वे चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा अनन्तगुना अधिक है। भोगी जीव सिद्धों से भी अनन्तगुना अधिक हैं। भोगी की कोटि में जीवों के तीन वर्ग हैं- एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और त्रीन्द्रिय । वनस्पति में अनन्त जीव होते हैं, इस अपेक्षा से भोगी जीव सिद्धों की अपेक्षा अनन्तगुना अधिक हैं।
प्रस्तुत आलापक में काम और भोग का निश्चित वर्गीकरण है। व्याख्या - साहित्य में उस का निर्वाह नहीं हुआ है।
दुर्बलशरीरस्य भोग- परित्याग-पदम् छद्मस्थः भदन्त ! मनुष्यः यः भव्यः अन्यतरेषु देवलोकेषु देवतया उपपत्तुं तन् नूनं भदन्त ! स क्षीणभोगी नो प्रभुः उत्थानेन, कर्मणा, बलेन वीर्येण पुरुषकार- पराक्रमेण विपुलान् भोग्यभोगान् भुञ्जानः विहर्तुम् ? तन् नूनं भदन्त ! एतमर्थम् एवं वदथः ? गौतम नो अयमर्थः समर्थः प्रभुः सः उत्थानेन अपि कर्मणा अपि बलेन अपि वीर्येण अपि, पुरुषकार- पराक्रमेण अपि अन्यतरान् विपुलान् भोग्यभोगान् भुञ्जानः विहर्तुम्, तस्माद् भोगी, भोगान् परित्यजन् महानिर्जरः महापर्यवसानः भवति ।
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आधोवधिकः भदन्त ! मनुष्यः यः भन्य अन्यतरेषु देवलोकेषु देवतया उपपत्तुं तन् नूनं भदन्त स क्षीणभोगी नो प्रभुः उत्थानेन, कर्मणा, बलेन, वीर्येण, पुरुषकार- पराक्रमेण
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दुर्बल शरीर वाले का भोग परित्याग-पद १४६, भन्ते छद्मस्थ मनुष्य जो किसी देवलोक में देव के रूप में उपपन्न होने के योग्य है, भन्ते ! वह क्षीणभोगी दुर्बल शरीर वाला है वह उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम से विपुल भोग्य भोगों का भोग करने में समर्थ नहीं है भन्ते क्या आप भी इस अर्थ को इस प्रकार कहते हैं ? गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। वह उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार - पराक्रम से विपुल भोग्य भोगों का भोग करने में समर्थ है, इसलिए वह भोगी है। वह भोगों का परित्याग करता हुआ महानिर्जरा और महापर्यवसान को प्राप्त होता है।
१४७. भन्ते! आधोवधिज्ञानी मनुष्य जो किसी देवलोक में देव के रूप में उपपन्न होने के योग्य है, भन्ते ! वह क्षीणभोगी दुर्बल शरीर वाला है वह उत्थान, कर्म,
बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम से विपुल भोग्य
१. भ. वृ. ६ / १२८ - सचित्ता अपि कामाः समनस्कप्राणिरूपापेक्षया अचित्ता अपि कामा भवंति शब्दद्रव्यापेक्षयाऽसंज्ञिजीवशरीररूपापेक्षया चेति ।
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