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________________ भगवई 1 -परक्कमेणं विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्ताए ? से नूनं भंते । एवमहं एवं वयह? गोयमा ! णो तिणट्ठे समट्ठे। पभू णं से उट्ठाणेण दि, कम्मेण दि, बलेण वि वीरिएण वि, पुरिसक्कार परक्कमेण वि अष्णयराई विपु लाई भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरित्तए, तम्हा भोगी, भोगे परिव्ययमाणे महानिज्जरे, महाजवसाने भवइ ॥ १४८. परमाोहिए गं भंते । मणूसे जे भविए तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झित्तए जाव अंत करेत्तए, से नूणं भंते ! से खीणभोगी नो पशू उद्वाणेणं, कम्गेणं, बलेणं, वीरिएणं, पुरि सवकार-परवकमेणं विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए ? से नूणं भंते ! एयमहं एवं वयह ? गोयमा ! णो तिगडे समडे पशू गं से उाणेण वि, कम्मेण वि, बलेण वि वीरिएण वि, पुरि सक्कार-परक्कमेण वि अण्णयराइं विपुलाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए, तम्हा भोगी, भोगे परिच्चयमाणे महानिज्जरे, महापज्जबसाणे भवड़ १४६. केवली णं भंते ! मणूसे जे भविए तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झित्तए जाव अंतं करेत्तए, से नृणं भंते से खीणभोगी नो पभू उट्ठागेणं, कम्मेणं, बलेणं, वीरिएणं, पुरिसक्कार- परक्कमेणं विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए ? से नूणं भंते ! एयमद्वं एवं वयह? गोयमा ! णो तिट्टे समट्टे । पभू णं से उट्ठाणेण वि, कम्मेण वि, बलेण वि, वीरिएण वि पुरिसक्कार-परक्कमेण वि अण्णयराइं विपुलाई भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरित्तए, तम्हा भोगी, भोगे परिच्चयमाणे महानिज्जरे, महापज्ज्वसाणे भवति ॥ ३७५ Jain Education International विपुलान् भोग्यभोगान् भुञ्जानः विहर्तुम् ? तन् नूनं मदन्त । एतमर्थम् एवं वद ? गौतम! नो अयमर्थः समर्थः । प्रभुः सः उत्थानेन अपि कर्मणा अपि बलेन अपि वीर्येण अपि पुरुषकार-पराक्रमेण अपि अन्यतरान् विपुलान् भोग्यभोगान् भुञ्जानः विहर्तुम्, तस्माद् भोग भोगान् परित्यजन् महानिर्जरः महापर्यवसानः भवति । परमाधो ऽवधिकः भदन्त ! मनुष्यः यः भव्यः तेनैव भवन सेद्धुं यावद् अन्तं कर्तुम्, तन् नूनं भदन्त ! स क्षीणभोगी नो प्रभुः उत्थानेन कर्मणा, बलेन वीर्येण, पुरुषकार-पराक्रमेण विपुलान् भोग्यभोगान् भुञ्जानः विहर्तुम् ? तन् नूनं भदन्त ! एतमर्थम् एवं वदथ ? गौतम! नो अयमर्थः समर्थः प्रभु सः उत्था नेन अपि कर्मणा अपि बलेन अपि वीर्येण अपि पुरुषकार- पराक्रमेण अपि अन्यतरान् विपुलान् भोग्यभोगान् भुञ्जानः विहर्तुम्, तस्माद् भोगी, भोगान् परित्यजन् महानिर्जरः, महापर्यवसानः भवति । केवली भदन्त ! मनुष्यः यः भव्यः तेनैव भवग्रहणेन सेद्धुं यावद् अन्तं कर्तुम्, तन् नूनं भदन्त ! स क्षीणभोगी नो प्रभुः उत्थानेन, कर्मणा, बलेन, वीर्येण, पुरुषकार- पराक्रमेण विपुलान् भोग्यभोगान् भुञ्जानः विहर्तुम् ! तन् नूनं भदन्त ! एतमर्थम् एवं वदथ ? गौतम ! नायमर्थः समर्थः । प्रभुः स उत्थानेन अपि, कर्मणा अपि, बलेन अपि, वीर्येण अपि पुरुषकार-पराक्रमेण अपि अन्यतरान् विपुलान् भोग्यभोगान् भुञ्जानः विहर्तुम् तस्माद् भोगिनः भोगान् परित्यजन् महानिर्जरः महापर्यवसानः भवति । भाष्य १. सूत्र १४६-१४६ प्रश्न उपस्थित किया गया जो भोगी नहीं है, यह त्यागी नहीं होता । त्यागी नहीं है, वह महानिर्जरा और महापर्यवसान वाला नहीं हो सकता। विशिष्ट निर्जरा के बिना वे विशिष्ट पुण्य का बंध नहीं होता। जैसे—एक पुरुष दुर्बल शरीर वाला है। उसमें उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार- पराक्रम नहीं है। वह भोग भोगने में समर्थ नहीं हो सकता, फिर त्याग कैसे ? इस प्रश्न का समाधान उत्थान, कर्म आदि के मात्रा भेद और उनके श. ७: उ. ७: सू. १४६-१४६ भोगों का भोग करने में समर्थ नहीं है भन्ते क्या आप भी इस अर्थ को इस प्रकार कहते हैं ? गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। वह उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार - पराक्रम से विपुल भोग्य भोगों का भोग करने में समर्थ है, इसलिए वह भोगी है। वह भोगों का परित्याग करता हुआ महानिर्जरा और महापर्यवसान को प्राप्त होता है। १४८. भन्ते ! परम अवधिज्ञानी मनुष्य, जो उसी भव में सिद्ध होने यावत् सब दुःखों का अन्त करने में योग्य हैं, भन्ते ! वह क्षीणभोगी दुर्बल शरीर वाला है। वह उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार पराक्रम से विपुल भोग्य भोगों का भोग करने में समर्थ नहीं है। भन्ते ! क्या आप भी इस अर्थ को इस प्रकार कहते हैं? For Private & Personal Use Only गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। वह उत्थान, कर्म, बल, चीर्य और पुरुषकार पराक्रम से विपुल भोग्य भोगों का भोग करने में समर्थ है इसलिए वह भोगी है। यह भोगों का परित्याग करता हुआ महानिर्जरा और महापर्यवसान को प्राप्त होता है। १४६. भन्ते ! केवलज्ञानी मनुष्य जो उसी भव में सिद्ध हो यावत् सब दुःखों का अन्त करने के योग्य है, भंते! वह क्षीणभोगी दुर्बल शरीर वाला है। यह उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार- पराक्रम से विपुल भोग्य भोगों का भोग करने में समर्थ नहीं है भन्ते ! क्या आप भी इस अर्थ को इस प्रकार कहते हैं ? गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। वह उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम से विपुल भोग्य भोगों का भोग करने में समर्थ है, इसलिए वह भोगी है। वह भोगों का परित्याग करता हुआ महानिर्जरा और महापर्यवसान को प्राप्त होता है। प्रर्वतक अध्यवसाय-भेद के आधार पर किया गया है। दुर्बल शरीर वाला व्यक्ति विषय का भोग करने में अधिक उत्थान, कर्म आदि का प्रयोग नहीं कर सकता, किंतु अल्प उत्थान, कर्म आदि का प्रयोग कर सकता है; इसलिए वह विषय का भोग करने में सर्वथा असमर्थ नहीं है। दुर्बल शरीर वाला व्यक्ति भी अध्यवसाय के स्तर पर विषय का भोग कर सकता है; इस अपेक्षा से भी वह विषय का भोग करने में असमर्थ नहीं है। वह भोग करने में समर्थ है इसलिए उनका परित्याग करने के कारण वह त्यागी भी हो सकता है। www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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