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श.७ : उ.७: सू.१४६-१५२
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भगवई
एकेन्द्रिय जीव भी प्रशस्त अध्यवसाय से मनुष्य के आयुष्य का बंध को भी भोगी कहा गया है। इसका तात्पर्य है कि वे दुर्बल शरीर वाले होने के करते हैं। फिर दुर्बल मनुष्य प्रशस्त अध्यवसाय से निर्जरा और देव-आयुष्य का कारण जीवन-यात्रोपयोगी वस्तु या पदार्थ का भोग करने में सर्वथा असमर्थ नहीं बंध क्यों नहीं कर सकता? प्रत्येक मनुष्य में उत्थान, कर्म आदि एक जैसे नहीं हैं इसलिए वे भोगी हैं। भोगी हैं, अतः त्यागी भी हैं और महानिर्जरा- महापर्यवसान होते। 'ध्यानविचार' में वीर्य, पराक्रम आदि के बारह-बारह प्रकार बतलाए वाले भी हैं। गए हैं।' एक व्यक्ति निर्जरा के लिए शरीर की शुभ प्रवृत्ति अधिक नहीं कर
शब्द-विमर्श सकता, किंतु ध्यान में वीर्य का प्रयोग अधिक कर सकता है। ध्यानात्मक वीर्य शरीर की शुभ प्रवृत्ति से अधिक निर्जरा का हेतु बन सकता है। ध्यानविचार में छद्मस्थ-आवृत ज्ञान वाला। वीर्य को इस प्रकार परिभाषित किया गया है-'ध्यान की अग्नि में जीव-प्रदेशों आधोवधिक, परमाधोवधिक-द्रष्टव्य भ. १/२००-२१० का भाष्य। के द्वारा कर्मों को जला डालने वाली शक्ति वीर्य है। इसलिए दुर्बल शरीर केवली-अनावृत ज्ञान वाला, सर्वज्ञ। वाला व्यक्ति भी भोग का परित्याग कर महानिर्जरा और महापर्यवसान वाला महानिर्जरा-जिसके कर्म का महान् निर्जरण हुआ है। हो सकता है।
महापर्यवसान-जिसका पर्यवसान स्वर्ग अथवा मोक्ष की प्राप्ति में हो। प्रस्तुत आलापक में अवधिज्ञानी, परमावधिज्ञानी और केवलज्ञानी
अकामनिकरण-वेदणा-पदं
अकामनिकरण-वेदना-पदम्
अकामनिकरण-वेदना-पद १५०. जे इमे मंते ! असण्णिणो पाणा, तं जहा- ये इमे भदन्त ! असंज्ञिनः प्राणाः, तद् यथा १५०. 'भन्ते ! जो ये अमनस्क प्राणी, जैसे-पृथ्वीकायिक
पुढविकाइया जाव वणस्सइकाइया, छट्ठा य -पृथिवीकायिकाः यावद् वनस्पतिकायिकाः, यावत् वनस्पतिकायिक (पांच स्थावर) छठे वर्ग के कुछ एगतिया तसा-एए णं अंधा, मूढा, तमं- षष्ठाः च एकके त्रसाः-एते अन्धाः, मूढाः, त्रस जीव हैं ये अन्ध हैं, मूढ़ हैं, अन्धकार में प्रविष्ट पविट्ठा, तमपडल-मोहजाल-पडिच्छन्ना अ- तमःप्रविष्टाः, तमःपटल-मोहजाल-प्रति- हैं, तमपटल और मोहजाल से आच्छादित हैं, अकामकामनिकरणं वेदणं वेदेंतीति वत्तव्यं सिया? च्छन्नाः अकामनिकरणां वेदनां वेदयन्तीति निकरण-अज्ञानहेतुक वेदना का वेदन करते हैं, वक्तव्यं स्यात् ?
क्या यह कहा जा सकता है? हंता गोयमा ! जे इमे असण्णिणो पाणा जाव हन्त गौतम ! ये इमे असंज्ञिनः प्राणाः यावद् हां, गौतम ! जो ये अमनस्क प्राणी यावत् अकामवेदणं वेदेंतीति वत्तव्वं सिया॥ वेदनां वेदयन्तीति वक्तव्यं स्यात् । निकरण वेदना का वेदन करते हैं यह कहा जा
सकता है।
१५१. अत्थि णं भंते ! पभू वि अकामनिकरणं
वेदणं वेदति? हंता! अत्थि ॥
अस्ति भदन्त ! प्रभुः अपि अकामनिकरणां १५१, भन्ते ! क्या प्रभु-समनस्क भी अकामनिकरण वेदनां वेदयति?
वेदना का वेदन करता है? हन्त ! अस्ति।
हां, करता है।
१५२. कहण्णं भंते ! पभू वि अकामनिकरणं कथं भदन्त ! प्रभुः अपि अकामनिकरणां १५२. भन्ते ! प्रभु भी अकामनिकरण वेदना का वेदन वेदणं वेदेति? वेदतां वेदयति?
कैसे करता है? गोयमा ! जे णं नो पभू विणा पदीवेणं अंध- गौतम! यः नो प्रभुः बिना प्रदीपेन अन्धकारे गौतम ! जो दीप के बिना अन्धकार में रूपों को देखने कारंसि रूवाई पासित्तए, जे णं नो पभू पुरओ रूपाणि द्रष्टुं, यः नो प्रभुः पुरतः रूपाणि में समर्थ नहीं है, जो अपने सामने के रूपों को भी चक्षु रूवाइं अणिज्झाइत्ता णं पासित्तए, जे णं नो अनिध्याय द्रष्टुं, यः नो प्रभुः ‘मग्गओ' रूपाणि का व्यापार किए बिना देखने में समर्थ नहीं है, जो पभू मग्गओ रूवाइं अणवयक्खित्ता णं पासि- अनवेक्ष्य द्रष्टुं, यः नो प्रभु पार्श्वतः रूपाणि अपने पृष्ठवर्ती रूपों को पीछे की ओर मुड़े बिना देखने त्तए, जे णं नो पभू पासओ रूवाइं अण- अनवलोक्य द्रष्टुं, यः नो प्रभुः ऊर्ध्वं रूपाणि में समर्थ नहीं है, जो अपने पार्श्ववर्ती रूपों का वलोएत्ता णं पासित्तए, जे णं नो पभू उड्ढं अनालोक्य द्रष्टुं, यः नो प्रभुः अधः रूपाणि अवलोकन किए बिना देखने में समर्थ नहीं है, जो रूवाइं अणालोएत्ता णं पासित्तए, जे णं नो अनालोक्य द्रष्टुं, एष गौतम! प्रभुः अपि अपने ऊर्ध्ववर्ती रूपों का अवलोकन किए बिना देखने पभू अहे रूवाई अणालोएत्ता णं पासित्तए, एस अकामनिकरणां वेदनां वेदयति ।
में समर्थ नहीं है, जो अपने अधोवर्ती रूपों का णं गोयमा! पभू वि अकामनिकरणं वेदणं
अवलोकन किए बिना देखने में समर्थ नहीं है, गौतम ! वेदेति॥
यह प्रभु भी अकामनिकरण वेदना का वेदन करता है।
२. ध्यानविचार, पृ. १६८-वीर्यम्-जीवप्रदेशैः कर्मणः प्रेरणं ध्यानाग्नौ चेटिकयेव कचवरस्य।
१. ध्यानविचार, पृ.१६६
जोगो विरियं थामो उच्छाह परक्कमो तहा चेट्ठा। सती सामत्थं चिय चउगुण बारट्ठ छन्नउई॥
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