________________
भगवई
३८६
यमेयं अरहया-रहमुसले संगामे। रहमुसले ज्ञातमेतद् अर्हता-रथमुसलः संग्रामः। रथणं भंते ! संगामे वट्टमाणे के जइत्था ? के मुसले भदन्त ! संग्रामे वर्तमाने कः अजैषी? पराजइत्था?
कः पराजेष्ट ? गोयमा ! वज्जी, विदेहपुत्ते, चमरे असुरिंदे गौतम ! वजी, विदेहपुत्रः, चमरः असुरेन्द्रः असुरकुमारराया जइत्था, नव मल्लई, नव असुरकुमार राजा अजैषुः, नव 'मल्लई' नव लेच्छई पराजइत्था ॥
'लेच्छई' पराजेषत।
श.७:उ.६:सू. १८२-१८५ स्मृत है, यह अर्हत् के द्वारा विज्ञात है-रथमुसल संग्राम! भन्ते ! रथमुसालसंग्राम में कौन जीता? कौन हारा? गौतम ! वज्री (इन्द्र) विदेहपुत्र (कोणिक) और असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर जीते । नी मल्ल और नी लिच्छवी हारे।
१८३. तए णं से कूणिए राया रहमुसलं संगामं ततः स कूणिकः राजा रथमुसलं संग्रामम्
उवट्ठिए जाणित्ता कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, उपस्थितं ज्ञात्वा कौटिम्बिकपुरूषान् शब्दयति, सद्दावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणु- शब्दयित्वा एवमवादीत्-क्षिप्रमेव भोः देवानुप्पिया! भूयाणंदं हत्थिरायं पडिकप्पेह, हय- प्रियाः! भूतानन्दं हस्तिराजं परिकल्पयत, -गय-रह-पवरजोहकलियं चाउरंगिणिं सेणं हय-गज-रथ-प्रवर-योधकलितां चतुरङ्गिणी सण्णाहेह, सण्णाहेत्ता मम एयमाणत्तियं सेनां सन्नह्यत, सन्नह्य मम एतामाज्ञप्ति खिप्पामेव पच्चप्पिणह ॥
क्षिप्रमेव प्रत्यर्पयत।
१८३. रथमुसल संग्राम उपस्थित हो गया है- यह जान कर राजा कोणिक ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया बुला कर कहा-देवानुप्रियो ! शीघ्र ही हस्तिराज भूतानन्द को सज्ज करो, अश्व, गज, रथ और प्रवर योद्धा से युक्त चतुरंगिणी सेना को सन्नद्ध करो, सन्नद्ध कर शीघ्र ही मेरी इस आज्ञा का प्रत्यर्पण करो।
१८४. तए णं ते कोडुंबियपुरिसा कोणिएणं रण्णा ततः ते कौटुम्बिकपुरुषाः कूणिकेन राज्ञा १८४. कौटुम्बिक पुरुष कोणिक राजा के द्वारा इस प्रकार एवं वुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठचित्तमाणंदिया जाव' एवमुक्ताः सन्तः हष्टतुष्टचित्ताः आनंदिताः का निर्देश प्राप्त कर हृष्ट-तुष्ट और आनन्दित चित्त मत्थए अंजलिं कटु एवं सामी ! तहत्ति यावत् मस्तके अञ्जलिं कृत्वा एवं स्वामिन्। वाले हुए यावत् अञ्जलि को मस्तक पर टिका कर आणाए विणएणं वयणं पडिसुणंति, पडि- तथेति आज्ञया विनयेन वचनं प्रतिश्रुण्वन्ति, बोले-स्वामिन् ! जैसा आपका निर्देश है, वैसा ही सुणित्ता खिप्पामेव छेयायरियोवएसमति- प्रतिश्रुत्य क्षिप्रमेव छेकाचार्योपदेश-मति- होगा, यह कह कर विनयपूर्वक वचन को स्वीकार कप्पणा-विकप्पेहिं सुनिउणेहिं उज्जलणेवत्थ- -कल्पना-विकल्पैः सुनिपुणैः उज्ज्वलनेपथ्य- किया, स्वीकार कर शीघ्र ही कुशल आचार्य के उपदेश -हव्वपरिवच्छियं सुसज्जं जाव भीमं संगामियं -'हब्ब'परिपक्षितं सुसज्जं यावद् भीमं सांग्रा- से उत्पन्न मति, कल्पना और विकल्पों तथा सुनिपुण अओझं भूयाणंदं हत्थिरायं पडिकति, मिकम् अयोध्यं भूतानन्दं हस्तिराज परि- व्यक्तियों द्वारा निर्मित उज्ज्वल नेपथ्य से युक्त, हय गय-रह-पवरजोहकलियं चाउरंगिणिं सेणं ___ कल्पयन्ति, हय-गज-रथ-प्रवरयोधकलितां सुसज्ज यावत् भीम, सांग्रामिक, अयोध्य-जिसके सण्णाति, सण्णाहेत्ता जेणेव कूणिए राया ___ चतुरङ्गिणी सेनां सन्नमन्ति, सन्नह्य यत्रैव सामने कोई लड़ने में समर्थन हो-हस्तिराज भूतानन्द तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयल- कूणिकः राजा तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागम्य को सज्ज किया; अश्व, गज, रथ और प्रवर योद्धा से परिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावत मस्तके युक्त चतुरंगिणी सेना को सन्नद्ध किया, सन्नद्ध कर कटु कूणियस्स रण्णो तमाणत्तियं पच्च- अञ्जलिं कृत्वा कूणिकस्य राज्ञः ताम् आज्ञप्ति जहां राजा कूणिक है वहां आए, आ कर दोनों हथेलियों प्पिणंति॥ प्रत्यर्पयन्ति।
से निष्पन्न सम्पुट वाली दसनखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख घुमा कर, मस्तक पर टिका कर राजा कूणिक को उस आज्ञा का प्रत्यर्पण किया।
१८५. तए णं से कूणिए राया जेणेव मज्जणघरं ततः सः कूणिकः राजा यत्रैव मज्जनगृहं तत्रैव
तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता मज्जणघरं उपागच्छति, उपागम्य मज्जनगृहम् अनुअणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता बहाए कयबलि- प्रविशति, अनुप्रविश्य स्नातः कृतबलिकर्मा कम्मे कयकोउय-मंगल-पायच्छित्ते सव्वा- कृतकौतुक-मंगल-प्रायश्चितः सर्वालंकारवि- लंकारविभूसिए सण्णद्ध-बद्ध-वम्मियकवए भूषितः सन्नद्ध-बद्ध-वर्मितकवचः उत्पीडितउप्पीलियसरासण-पट्टिए पिणद्धगेवेज्ज- शरासन-पट्टिकः पिनद्धग्रैवेय-विमलवरबद्धविमलवरबद्धचिंधपट्टे गहियाउहप्पहरणे स- चिह्नपट्ट: गृहीतायुधप्रहरणः सकोरण्टमा- कोरेंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं चउ- ल्यदाम्ना छत्रेण धियमाणेन चतुश्चामरबालचामरबालवीजियंगे, मंगलजयसद्दकयालोए वीजिताङ्गः मंगलजयशब्दकृतालोकः यावद् जाव जेणेव भूयाणंदे हत्थिराया तेणेव उवा- यत्रैव भूतानन्दः हस्तिराजः तत्रैव उपागच्छति, गच्छइ, उवागच्छित्ता भूयाणंदं हत्थिरायं उपागम्य भूतानन्दं हस्तिराजम् आरूढः ।
१८५. राजा कूणिक जहां मज्जनघर है, वहां आया, आ
कर मज्जनघर में अनुप्रवेश किया, अनुप्रवेश कर उसने स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक (तिलक आदि) और प्रायश्चित्त किया, सब अलंकारों से विभूषित हुआ, लोह कवच को धारण किया, कलई पर चमड़े की पट्टी बांधी, गले का सुरक्षाकवच पहना, विमलवर चिह्नपट्ट बांधे, आयुध और प्रहरण लिए। उसने कटसरैया के फूलों से बनी मालाओं से युक्त छत्र धारण किया, जिसके दोनों ओर दो-दो चमर डुलाए जा रहे थे। उसको देखते ही जनसमूह मंगल जय-निनाद करने लगा यावत्, जहां हस्तिराज भूतानन्द है, वहां आया। आ कर हस्तिराज भूतानन्द पर आरूढ़ हो गया।
दुरुढे॥
Jain Education Intemational
For Private & Personal use only
www.jainelibrary.org