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________________ श.७:उ.६:सू.१८६-१८८ ३६० भगवई १८६. तए णं से कूणिए राया हारोत्थय-सुकय- ततः स कूणिकः राजा हारोपस्तृत-सुकृत- १८६. 'राजा कूणिक का वक्ष हार के आच्छादन से -रइयवच्छे जाव सेयवरचामराहि उद्भूबमाणी- -रचितवक्षाः यावत् श्वेतवरचामराभिः उद्भूय- सुशोभित हो रहा था यावत् वह डुलाए जा रहे हिं-उद्धव्वमाणीहिं हय-गय-रह-पवरजोह- मानाभिः-उद्धूयमानाभिः हय-गज-रथ- श्वेतवर चमरों से युक्त; अश्व, गज, रथ और प्रवर कलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिबुडे -प्रवरयोधकलितया चतुरङ्गिण्या सेनया सार्धं योद्धा से युक्त चतुरंगिणी सेना से परिवृत, महान् महयाभडचडगरविंदपरिक्खित्ते जेणेव रह- संपरिवृतः महद्भटचटकरवृन्दपरिक्षिप्तः यत्रैव सुभटों के सुविस्तृत वृन्द से परिक्षिप्त हो कर जहां मूसले संगामे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता रथमुसलः संग्रामः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य रथमुसल संग्राम की भूमि थी, वहां आया। आ कर रहमुसलं संगामं ओयाए। पुरओ य से सक्के रथमुसलं संग्रामम् उपयातः । पुरतः च स रथमुसल संग्राम में उतर गया। उसके पुरोभाग में देविंदे देवराया एगं महं अभेज्जकवयं वइर- शक्रः देवेन्द्रः देवराजः एक महद् अभेद्य कवचं देवेन्द्र देवराज शक्र एक महान् वज्र तुल्य अभेद्य पडिरूवगं विउव्वित्ता णं चिट्ठइ। मग्गओ य से वज्रप्रतिरूपकं विकृत्य तिष्ठति। 'मग्गओ' च कवच का निर्माण कर उपस्थित है। उसके पृष्ठभाग में चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया एगं महं स चमरः असुरेन्द्रः; असुरकुमारराजा एक असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर एक महान् लोह का आयसं किढिणपडिरूवगं विउव्वित्ता णं चिट्ठइ। महद् आयसं 'किढिण'प्रतिरूपकं विकृत्य तापस-पात्र-तुल्य पात्र' निर्मित कर उपस्थित है। इस एवं खलु तओ इंदा संगामं संगामें ति, तं तिष्ठति। एवं खलु त्रयः इन्द्राः संग्राम सं- प्रकार तीन इन्द्र संग्राम कर रहे हैं, जैसे–देवेन्द्र, जहा–देविंदे य, मणुइंदे य, असुरिंदे य। ग्रामयन्ति, तद् यथा देवेन्द्रः च, मनुजेन्द्रः च, मनुष्येन्द्र और असुरेन्द्र। राजा कूणिक एकहस्तिका से एगहत्थिणा वि णं पभू कूणिए राया जइत्तए, असुरेन्द्रः च। एकहस्तिनापि प्रभुः कूणिकः भी जीतने में समर्थ है। राजा कूणिक एकहस्तिका से एगहत्थिणा वि णं पभू कूणिए राया पराजि- राजा जेतुम्, एकहस्तिनापि प्रभुः कूणिकः भी दूसरों को पराजित करने में समर्थ है। णित्तए॥ राजा पराजेतुम्। भाष्य १. सूत्र १८६ तापस-पात्र-तुल्य पात्र (किढिणपडिरूवग)-'किढिण' का अर्थ शब्द-विमर्श है--बांस से बना हुआ पात्र। जिसका उपयोग तापस किया करते थे। 'किढिण' देशी शब्द है। प्रतिरूपक का अर्थ है-उसके आकार वाला पात्र।' ___ मग्गओ-यह देशी शब्द है। इसका अर्थ है 'पीठ पीछे'। मराठी में हस्तिका-प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त हस्तिका का भाष्य किया जा मागे का अर्थ है-पीछे। चुका है। १८७. तए णं से कूणिए राया रहमुसलं संगाामं ततः स कूणिकः राजा रथमुसलं संग्रामं १८७. राजा कूणिक ने रथमुसल संग्राम लड़ते हुए नौ संगामेमाणे नव मल्लई, नव लेच्छई-कासी- संग्रामयन् नव मल्लई नव 'लेच्छई'-काशी- मल्ल और नौ लिच्छवी-काशी-कोशल के अठारह कोसलगा अट्ठारस वि गणरायाणो हय-महिय- -कौशलकान् अष्टादशापि गणराजान् हत- गणराजों को हत-प्रहत कर दिया, मथ डाला, प्रवर -पवरवीर-घाइय-विवडियचिंध-द्धयपडागे कि- -मथित-घातित-प्रवरवीर-विपतितचिह्न-ध्वज- योद्धाओं को मार डाला, ध्वजा-पताका को गिरा दिया, च्छपाणगए दिसोदिसिं पडिसेहित्था ॥ पताकान् कृच्छ्रप्राणगतान् दिशोदिशं प्रत्य- उनके प्राण संकट में पड़ गए, उन्हें पीछे की ओर सीषिधत्। ढकेल दिया। १५८. से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-रहमुसले तत्केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-रथमुसलः १८८.'भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-वह संगामे? संग्रामः? रथमुसल संग्राम है? गोयमा! रहमुसले णं संगामे वट्टमाणे एगे रहे गौतम ! रथमुसले संग्रामे वर्तमाने एको रथः गौतम ! रथमुसल संग्राम चल रहा था। उस समय एक अणासए, असारहिए, अणारोहए, समुसले अनश्वकः, असारथिकः, अनारोहकः, स- रथ जिसमें घोड़े जुते हुए नहीं थे, कोई सारथि उसे महया जणक्खयं, जणवहं, जणप्पमई, जण- मुसलः महद् जनक्षयं जनवधं, जनप्रमर्द, चला नहीं रहा था। जिसमें कोई योद्धा नहीं बैठा था, संवट्टकप्पं रुहिरकद्दमं करेमाणे सवओ समंता जनसंवर्तकल्पं रुधिरकर्दमं कुर्वाणः सर्वतः उसमें एक मुसल था, वह रथ योद्धाओं का क्षय, वध परिधावित्था। से तेणद्वेण गोयमा ! एवं समन्तात् पर्यधाविष्ट। तत् तेनार्धन गौतम! और प्रमर्दन करता हुआ, योद्धाओं के लिए प्रलयपात वुच्चइरहमुसले संगामे। एवमुच्यते-रथमुसलः संग्रामः । के समान बना हुआ, युद्धभूमि पर रक्त का कीचड़ फैलाता हुआ चारों तरफ दौड़ रहा था। गौतम ! इस अपेक्षा से कहा जा रहा है-रथमुसल संग्राम है। १. भ. वृ. ६/१८६-किदिनं वंशमयस्तापससंबंधी भाजनविशेषस्तत् प्रतिरूपकं-तदाकारं वस्तु। २. देखें, भ.७/१७७ का भाष्य । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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