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भगवई
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श.७: उ. ६ : सू.१६५-२००
गच्छंति उवागच्छित्ता जाव तमाणत्तियं पच्च- तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागत्य यावत् तामाज्ञप्ति प्पिणंति॥
प्रत्यर्पयन्ति।
था वहां आए, आ कर यावत् उस आज्ञा का प्रत्यर्पण किया।
१६६. तए णं से वरुणे नागनत्तुए जेणेव मज्जण- ततः सः वरुणः नागनप्तृकः यत्रैव मज्जनगृहं १६६. नागनतृक वरुण जहां मज्जनघर है वहां आया,
घरे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता मज्जण- तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य मज्जनगृहं अनु- आ कर मज्जनघर में अनुप्रवेश किया, अनुप्रवेश कर घरं अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता प्रहाए प्रविशति, अनुप्रविश्य स्नातः कृतवलिकर्मा उसने स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक (तिलक कयबलिकम्मे कयकोउय-मंगल-पायच्छित्ते कृतकौतुक-मंगल-प्रायश्चित्तः सर्वालंकार- आदि) मंगल (दधि, अक्षत आदि) और प्रायश्चित किया; सव्वालंकारविभूसिए सण्णद्ध-बद्ध-वम्मिय- विभूषितः सन्नद्ध-बद्ध-वर्मित कवचः सको- सब अलंकारों से विभूषित हुआ, लोहकवच को धारण -कवए सकोरेंटमल्ल दामेणं छत्तेणं धरिज्ज- रण्टमाल्य-दाम्ना छत्रेण धियमाणेन अनेक- किया, कटसरैया के फूलों से बनी मालाओं से युक्त माणेणं, अणेगगणनायग-दंडनायग-राईसर- गणनायक-दण्डनायक-राजेश्वर-तलवर- छत्र धारण किया। अनेक गणनायक, दण्डनायक, राजे, -तलवर-माडंबिय-कोडुंबिय-इब्म-सेट्ठि-से- -माडम्बिक-कौटुम्बिक-इम्य-श्रेष्ठि-सेनापति- ईश्वर, तलवर, (कोटवाल) माडम्बिक, कौटुम्बिक, णावइ सत्थवाह-दूय-संधिपालसद्धिं संपरिवुडे -सार्थवाह-दूत-सन्धिपालैः सार्द्ध संपरिवृतः इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह, दूत और सन्धिपालों मज्जणघराओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्ख- मज्जनगृहात् प्रतिनिष्कामति, प्रतिनिष्क्रम्य के साथ उनसे घिरा हुआ मज्जनघर से बाहर निकला, मित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला, जेणेव यत्रैव बाह्यका उपस्थानशाला, यत्रैव चतुर्घण्टम् निकल कर जहां बाहरी उपस्थानशाला है, जहां चार चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ, उवाग- अश्वरथः तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य चतु- घण्टाओं वाला अश्वरथ है, वहां आया। आ कर चार च्छित्ता चाउग्घंटं आसरहं दुरुहइ, दुरुहित्ता धण्टम् अश्वरथम् आरोहति, आरुह्य हय- घण्टाओं वाले अश्वरथ पर आरूढ हुआ, आरूढ़ हो हय-गय-रह-पवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए -गज-रथ-प्रवरयोधकलितया चतुरङ्गिण्या कर अश्व, गज, रथ और प्रवर योद्धा से युक्त सेणाए सद्धिं संपरिडे, महयाभडचडगरविंद- सेनया सार्द्ध संपरिवृतः महद्भटचटकरवृन्द- चतुरंगिणी सेना से परिवृत, महान् सुभटों के सुविस्तृत परिक्खित्ते जेणेव रहमुसले संगामे तेणेव परिक्षिप्तः यत्रैव रथमुसलः संग्रामः तत्रैव वृन्द से परिक्षिप्त हो कर जहां रथमुसल संग्राम की उवागच्छइ, उवागच्छित्ता रहमुसलं संगाम उपागच्छति, उपागत्य रथमुसलं संग्रामम् भूमि थी वहां आया। आ कर रथमुसल संग्राम में उतर ओयाए॥ उपयातः।
गया।
१६७. तए णं से वरुणे नागनत्तुए रहमुसलं संगामं ततः स वरुणः नागनतृकः रथमुसलं संग्रामम् १६७. नागनप्तृक वरुण ने रथमुसल संग्राम में उतरने के
ओयाए समाणे अयमेयारूवं अभिग्गहं अभि- उपयातः सन् इममेतद्रूपं अभिगृहम् अभि- साथ-साथ इस प्रकार का अभिग्रह स्वीकार कियागेण्हइ-कप्पति मे रहमुसलं संगाम संगामे- गृहाति कल्पते मे (मम) रथमुसलं संग्रामं रथमुसल संग्राम करते समय जो मुझ पर पहले प्रहार माणस्स जे पुट्विं पहणइ से पडिहणित्तए, संग्रामयतः यो पूर्वं प्रहन्ति तं प्रतिहन्तुम, करता है उस पर मैं प्रहार करूंगा, दूसरों पर प्रहार अवसेसे नो कप्पतीति; अयमेयारूवं अभिग्गहं अवशेषान्न कल्पते इति; इममेतद्रूपं अभिग्रहम् । नहीं करूंगा। इस प्रकार का अभिग्रह स्वीकार किया, अभिगेण्हइ,अभिगेहेत्ता रहमुसलं संगाम अभिगृह्णाति, अभिगृह्य रथमुसलं संग्राम स्वीकार कर रथमुसल संग्राम में संलग्न हो गया। संगामेति ॥
संग्रामयति।
१६८. तए णं तस्स वरुणस्स नागनत्तुयस्स रह- ततः तस्य वरुणस्य नागनतृकस्य रथमुसलं मुसलं संगामं संगामेमाणस्स एगे पुरिसे सरि- संग्राम संग्रामयतः एकः पुरुषः सदृशकः सदृ- सए सरित्तए सरिव्वए सरिसभंडमत्तोवगरणे क्त्वक् सदृग्वयाः सदृग्भाण्डामात्रोपकरणः रहेणं पडिरहं हव्वमागए ।
रथेन प्रतिरथं 'हब्ब'आगतः ।
१६८. वह नागनप्तृक वरुण रथमुसल संग्राम में युद्ध कर
रहा था, उस समय एक रथारोही पुरुष प्रतिरथी के रूप में उसके सामने आया जो उसके जैसा ही लग रहा था-समान त्वचा वाला, समान वय वाला और समान युद्धोपयोगी साधन सामग्री वाला।
१६६. तए णं से पुरिसे वरुणं नागनत्तुयं एवं ततः सः पुरुषः वरुणं नागनप्तृकं एवम- १६६. उस पुरुष ने नागनप्तृक वरुण से इस प्रकार कहावदासी-पहण भो वरुणा! नागनत्तुया! पहण वादीत्-प्रजहि भो वरुण! नागनप्तृक! प्र- हे नागनप्तृक वरुण ! प्रहार करो । नागनतृक वरुण! भो वरुणा ! नागनत्तुया ! जहि भो वरुण! नागनप्तृक !
प्रहार करो।
२००. तए णं से वरुणे नागनत्तुए तं पुरसं एवं ततः सः वरुणः नागनप्तृकः तं पुरुषम् एव- २००. नागनतृतक वरुण ने उस पुरुष से इस प्रकार वदासी-नो खलु मे कप्पइ देवाणुप्पिया ! पुदि मवादीत्-नो खलु मे (मम) कल्पते देवानुप्रिय! कहा-देवानुप्रिय ! जो पहले मुझ पर प्रहार नहीं अहयस्स पहणित्तए, तुमं चेवणं पुचि पहणा- पूर्वम् अघ्नतः प्रहन्तुम्, त्वं चैव पूर्वं प्रजहि। करता, उस पर मैं प्रहार नहीं कर सकता । तू ही
पहले मुझ पर प्रहार करो।
हि॥
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