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श.७: उ.६: सू.२०१-२०३
२०१. तए णं से पुरिसे वरुणेणं नागनत्तुएणं एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते रुट्ठे कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे धणुं परागुसइ, परामुसित्ता उस परामुसइ, परामुसित्ता ठाणं ठाति, ठिच्चा आययकरणाय उसुं करेइ, करेत्ता वरुणं नागनत्यं गाढप्पहारीकरेइ ॥
२०२. तए णं से वरुणे नागनत्तुए तेणं पुरिसेणं गाढप्पहारीक सगाणे आसुरुते रुद्धे कुविए चडिक्किए मिसिमिसेमागे धणु परामुस, परामुसित्ता उसे परामुस, परामुसित्ता आवयकणाय उसुं करे करेजा व पुरिसं एगाहयं कूडाहच्चं जीवियाओ ववरोवेड़ ॥
२०३. तए गं से वरुणे नागनत्तुए तेनं पुरिसेगं गाढपहारीक समाणे अत्थामे अबले अवीरिए अपुरिसक्कारपरक्कमे अधारणिज्जमिति कट्टु तुरए निमिन्ट, निगिन्हित्ता रहे परावत्ते, परावत्तेत्ता रहमुसलाओ संगामाओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता एगंतमंतं अवक्कमइ, अवक्कमित्ता तुरए निगिण्हइ, निगिच्हित्ता रहे वेद, उवेशा रहाओ पच्चीरुहइ पच्चोरुहित्ता तुरए मोएइ, मोएत्ता तुरए विसज्जे, विसज्जेता दमसंचार संघ संथ रित्ता दव्णसंधारणं दुरुहइ, दुरुहिता पुरया भिमुहे संपलियंकनिसणे करयल परिग्गाहियं दसनहं सिरसावतं मत्थए अंजलि कट्टु एवं वयासी- नमोत्यु णं अरहंताणं भगवंताणं जाव सिद्धिगतिनामधेयं ठाणं संपत्ताणं, नमोत्थु णं सममस्स भगवओ महावीररस आदिगरस्स जाव सिद्धिगतिनामधेयं ठाणं संपाविजकामस्स नम धम्मायरियस धम्मोवदेसगस्स, वंदामि णं भगवंतं तत्थगयं इहगए, पासउ मे से भगवं तत्थगए इहगयं ति कट्टु वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी - पुव्विं पिणं मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए यूलए पाणाड्याए पव्यवखाए जावन्जीवार एवं जाय थूलए परिग्गहे पचखाए जावज्जीवाए, इवाणि पच्चक्खाए पिणं अहं तस्सेव भगवओ महावीरस्स अँतिए
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ततः स पुरुषः वरुणेन नागनप्तृकेण एवम् उक्तः सन् आशुरुप्तः रुष्टः कुपितः चाण्डिस्थितः मिसिमिसिमानः धनुः परामृशति परामृश्य इषु परामृशाते, परामृश्य स्थाने तिष्ठति, स्थित्वा आयतकर्णायतम् इषु करोति, कृत्वा वरुणं नागनप्तृकं गाढप्रहारीकरोति ।
ततः सः वरुणः नागनप्तृकः तेन पुरुषेण गाठप्रहारीकृतः सन् आशुतः रुष्टः कुपितः चाण्डस्थित मिसिमिसिमानः धनुः परामृशति, परामृश्य इषु परामृशति, परामृश्य आयतकर्णायतम् इषु करोति कृत्वा तं पुरुषम् "एका कूडाच्च जीविताद् व्यपरोपयति ।
ततः स वरुणः नागनप्तृकः तेन पुरुषेण गाड प्रहारीकृतः सन् अस्थामः अवतः अवीर्यः अपुरुषकारपराक्रमः अधारणीयमिति कृत्वा तुरंगी निगृहाति निगृह्य स्वं परावर्तयति, परावर्त्य रथमुसलात् संग्रामात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य एकान्तमन्तम् अपक्रामति, अपक्रम्य तुरगो निगृहाति, निगृहा रथं स्थापयति, स्थापयित्वा रथात् प्रत्यवरोहति प्रत्यरूह्य तुरगौ मोचयति, मोचयित्वा तुरगौ विसृजति विसृज्य दर्भसंस्तारक संस्तृणोति, संस्तुत्य दर्भसंस्तारकं आरोहति, आरुब पूर्वाभिमुखः सपर्यनिषण्णः करतलपरि गृहीतं दशनखं शिरसावत मस्तके अम्नलि कृत्वा एवमवादी नमो भग वद्भ्यः यावत् सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं संप्राप्तेभ्यः नमोऽस्तु श्रमणाय भगवते महावीराय आदिकराय यावत् सिद्धिगतिनामधेय स्थानं संप्राप्तुकामाय मम धर्माचार्याय धर्मोपदेशकाय वन्दे भगवन्तं तत्रगतम् इहगतः, पश्यतु मां, स भगवान् तत्रगतः इहगतम् इति कृत्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत् पूर्वमपि मया श्रमगस्य भगवतो महावीरस्य अन्तिके स्कूलकः प्राणातिपातः प्रत्याख्यातः यावज्जीवम् एवं यावत् स्थूलक परिग्रहः प्रत्याख्यातः यावज्जीवम् इदानीम्
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भगवई
२०१ नागनप्तृक वरुण के द्वारा ऐसा कहने पर वह पुरुष तत्काल आवेश में आ गया, रुष्ट हो गया, कुपित हो गया। उसका रूप रौद्र बन गया। वह क्रोध की अग्नि से प्रदीप्त हो उठा। इस अवस्था में वह धनुष हाथ में लेता है, ले कर बाण को धनुष्य पर चढ़ाता है, चढ़ा कर स्थान (वैशाख नामक युद्ध की मुद्रा) में खड़ा होता है। खड़ा हो कर बाण को कान की लंबाई तक खींचता है, खींच कर वह नागनप्तृक वरुण पर गाढ प्रहार करता है।
२०२. नागनप्तृक वरुण उस प्रतिरथी पुरुष के द्वारा गाढ़ प्रहार किये जाने पर तत्काल आवेश में आ गया, रुष्ट हो गया, कुपित हो गया। उसका रूप रौद्र बन गया। वह क्रोध की अग्नि से प्रदीप्त हो उठा। इस अवस्था में वह धनुष हाथ में लेता है, ले कर बाण को धनुष्य पर चढ़ाता है, चढ़ा कर बाण को कान की लम्बाई तक खींचता है, खींच कर उस पुरुष को कूट के प्रहार की भांति एक ही प्रहार में जीवन-शून्य बना देता है।
२०३. नागनप्तृक वरुण उस पुरुष के द्वारा गाढ प्रहार किये जाने पर प्राण, बल, वीर्य, पुरुषकार और पराक्रम रहित हो गया। शरीर अब टिक नहीं पाएगा, यह चिन्तन कर घोड़ों की लगाम खींची, खींच कर रथ को मोड़ा, मोड़ कर रथमुसल संग्रामभूमि से बाहर आ गया, बाहर आ कर एकान्त भूमिभाग में पहुंचा, पहुंच कर घोड़ों की लगाम को खींचा, खींच कर रथ को ठहराया, ठहरा कर रथ से नीचे उतरा, उतर कर घोड़ों को मुक्त कर दिया, मुक्त कर उन्हें विसर्जित कर दिया, विसर्जित कर दर्भ का बिछौना किया, बिछौना कर उस पर चला गया। जा कर पूर्व की ओर मुंह कर पर्यकासन में बैठ दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट वाली दसनखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख घुमा कर भाल पर टिका कर इस प्रकार बोला- 'नमस्कार हो अर्हत् भगवान को यावत् जो सिद्धगति नामक स्थान को प्राप्त हो चुके हैं, नमस्कार हो आदिकर्त्ता श्रमण भगवान महावीर को यावत् जो सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त करने के इच्छुक है, जो मेरे धर्माचार्य और धर्मोपदेशक हैं। वहां विराजित भगवान यहां स्थित मुझे देखे, ऐसा सोच कर वह वन्दन - नमस्कार करता है, वन्दन- नमस्कार कर वह इस प्रकार बोला- 'मैंने पहले भी श्रमण भगवान् महावीर के पास जा कर जीवनभर के लिए स्थूल प्राणातिपात यावत् स्थूल परिग्रह का प्रत्याख्यान किया था। इस समय भी मैं श्रमण भगवान् महावीर के पास जीवनभर के लिए सर्व प्राणातिपात यावत् मिथ्या
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