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भगवई
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श.७ : उ.६:सू.२०३-२०६
सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामि जावज्जीवाए जाव अपि अहं तस्यैव भगवतो महावीरस्य अन्ति- मिच्छादसणसल्लं पच्चक्खामि जावज्जीवाए। के सर्वं प्राणातिपातं प्रत्याख्यामि यावज्जीवं सव्वं असण-पाण-खाइम-साइमं-चउविहं पि यावन् मिथ्यादर्शनशल्यं प्रत्याख्यानि यावआहारं पच्चक्खामि जावज्जीवाए। जं पि य ज्जीवम् । सर्वम् अशन-पान-खाद्य-स्वायंइमं सरीरं इटुं कंतं पियं जाव मा णं वाइय- चतुर्विधमपि आहारं प्रत्याख्यामि यावज्जीवम्। -पित्तिय सेंभिय-सण्णिवाइय विविहा रोगायंका यदपि च इदं शरीरम् इष्टं कान्तं प्रियं यावन् परीसहोवसग्गा फुसंतु त्ति कटु एयं पिणं मा वातिक-पैत्तिक-श्लैष्मिक-सन्निपातिकाः चरिमेहिं ऊसास-नीसासेहिं वोसिरिस्सामि त्ति विविधाः रोगातकाः परीषहोपसर्गाः स्पृशन्तु कटु सण्णाहपढें मुयइ, मुइत्ता सल्लुद्धरणं इति कृत्वा एतदपि चरमैः उच्छ्वास-निःश्वासैः करेइ, करेत्ता आलोइय-पडिक्कते समाहिपत्ते व्युत्सृजामि इति कृत्वा सन्नाहपढें मुञ्चति, आणुपुवीए कालगए॥
मुक्त्वा शल्योद्धरणं करोति, कृत्वा आलोचितप्रतिक्रान्तः प्राप्तसमाधिः आनुपूर्व्या कालगतः।
दर्शनशल्य का प्रत्याख्यान करता हूं। मैं जीवन भर के लिए सर्व अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य इस चार प्रकार के आहार का प्रत्याख्यान करता हूं। यद्यपि मेरा यह शरीर मुझे इष्ट, कान्त, प्रिय थावत् वात, पित्त श्लेष्म और सन्निपातजनित बहुत से रोग और आतंक तथा परीषह ओर उपसर्ग इसका स्पर्श न करें, इसलिए इसको भी मैं अन्तिम उच्छ्वास-निःश्वास तक छोड़ता हूं, ऐसा कर कवच खोला, खोलकर बाण को निकाला, निकाल कर आलोचना की, प्रतिक्रमण किया, समाधि में लीन हो गया, कुछ समय पश्चात् मृत्यु को प्राप्त
हुआ।
वरुणनागनत्तुय-मित्त-पदं
वरुणनागनतृक-मित्र-पदम्
नागनप्तृक वरुण के मित्र का पद २०४. तए णं तस्स वरुणस्स नागनत्तुयस्स एगे ततः तस्य वरुणस्य नागनप्तृकस्य एकः २०४. उस नागनतृक वरुण का प्रिय बालसखा रथमुसल पियबालवयंसए रहमुसलं संगामं संगामेमाणे प्रियबालवयस्यः रथमुसलं संग्राम संग्रामयन् संग्राम में लड़ रहा था, एक पुरुष के द्वारा गाढ़ प्रहार एगेणं पुरिसेणं गाढप्पहारीकए समाणे अत्थामे एकेन पुरुषेण गाढप्रहारीकृतः सन् अस्थामः किये जाने पर वह प्राण, बल, वीर्य, पुरुषकार और अबले अवीरिए अपुरिसक्कारपरक्कमे अबलः अवीर्यः अपुरुषकारपराक्रमः अधार- पराक्रमरहित हो गया। शरीर अब टिक नहीं पाएगा, अधारणिज्जमिति कटु वरुणं नागनत्तुयं णीयमिति कृचा वरुणं नागनातृकं रथमुसलात् यह चिन्तन कर रहा था। उसने देखा-नागनतृक रहमुसलाओ संगामाओ पडिनिक्खममाणं संग्रामात् प्रतिनिष्कामन्तं पश्यति, दृष्ट्वा तुरंगी वरुण रथमुसल संग्राम की भूमि से लौट रहा है, यह पासइ, पासित्ता तुरए निगिण्हइ, निगिण्हित्ता निगृहाति, निगृह्य यथा वरुणः यावत् तुरगी देख कर उसने घोड़ों की लगाम खींची, खींच कर जहा वरुणे जाव तुरए विसज्जेति, पडसंथारगं विसृजति, पटसंस्तारकम् आरोहति, आरुह्य वरुण की भांति यावत् घोड़ों को विसर्जित किया, वस्त्र दुरुहइ, दुरुहित्ता पुरत्थाभिमुहे संपलियंक- पूर्वाभिमुखः संपर्यङ्कनिषण्णः करतलपरिगृहीतं के बिछौने पर गया, जा कर पूर्व की ओर मुंह कर, निसण्णे करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं दशनखं शिरसावर्तं मस्तके अञ्जलिं कृत्वा पर्यकासन में बैठ दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट मत्थए अंजलिं कटटु एवं वयासी-जाइ णं एवमवादीद्-यानि भदन्त ! मम प्रियबाल- वाली दसनखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख घुमा भंते! मम पियबालवयंसस्स वरुणस्स नाग- वयस्य वरुणस्य नागनप्तृकस्य शीलानि व्रतानि कर भाल पर टिका कर इस प्रकार बोला-मेरे प्रिय नत्तुयस्स सीलाई वयाइं गुणाई वेरमणााइं गुणाः विरमणानि प्रत्याख्यानपोषधोपवासाः, बालसखा नागनप्तृक वरुण के जो शील, व्रत, गुण, पच्चक्खाण-पोसहोववासाई, ताइ णं मम पि तानि ममापि भवन्तु इति कृत्वा सन्नाहपढें विरमण, प्रत्याख्यान और पौषघोपवास हैं वे सब मुझे भवंतु त्ति कटु सण्णाहपढें मुयइ, मुइत्ता मुञ्चति, मुक्त्वा शल्योद्धरणं करोति, कृत्वा भी उपलब्ध हो। यह कह कर कवच को खोला, खोल सल्लुद्धरणं करेइ, करेत्ता आणुपुब्बीए काल- आनुपूर्व्या कालगतः।
कर बाण को निकाला, निकाल कर कुछ समय पश्चात् मृत्यु को प्राप्त हुआ।
गए॥
२०५. तए णं तं वरुणं नागनत्तुयं कालगयं ततः तं वरुणं नागनप्तृकं कालगतं ज्ञात्वा २०५. नागनप्तृक वरुण को दिवंगत हुआ जान कर
जाणित्ता अहासन्निहिएहिं वाणमंतरेहिं देवेहिं यथासन्निहितैः वाणमन्तरैः देवैः दिव्यानि पार्श्ववर्ती वाणमन्तर देवों ने दिव्य सुरभि गंध वाला दिव्वे सुरभिगंधोदगवासे बुढे, दसद्धवण्णे सुरभिगन्धोदकवासांसि वृष्टानि (वर्षितानि) जल बरसाया, पांच वर्ण के फलों की वर्षा की, दिव्य कुसुमे निवातिए, दिव्वे य गीय-गंधव्वनिनादे दशार्द्धवर्णानि कुसुमानि निपातितानि, दिव्यश्च गीत गाए और गन्धर्व-निनाद किया। कए या वि होत्थ ॥
गीत-गन्धर्वनिनादः कृतश्चापि अभूत्।
२०६. तए णं तस्स वरुणस्स नागनत्तुयस्स तं ततः तस्य वरुणस्य नागनप्तृकस्य तां दिव्यां २०६. नागनतृक वरुण की वह दिव्य देव ऋद्धि, दिव्य दिव्वं देविडिंढ दिव्वं देवज्जुतिं दिव्वं देवाणुभागं देवद्धि दिव्यां देवद्युतिं दिव्यं देवानुभागं श्रुत्वा देव-द्युति और दिव्य देव-सामर्थ्य के संवाद को सुन सुणित्ता य पासित्ता य बहुजणो अण्णमण्णस्स च दृष्ट्वा च बहुजनः अन्योन्यस्य एवमाचक्षते कर देख कर बहुत जनों ने परस्पर इस प्रकार एवमाइक्खइ जाव परुवेइ–एवं खलु देवाणु- यावत् प्ररूपयति–एवं खलु देवानुप्रियाः! आख्यान किया यावत् प्ररूपणा की-देवानुप्रियो ! प्पिया! बहवे मणुस्सा अण्णयरेसु उच्चावएसु बहवः मनुष्याः अन्यतरेषु उच्चावचेषु संग्रामेषु बहुत मनुष्य नाना प्रकार के संग्रामों में अभिमुख रहते संगामेसु अभिमुहा चेव पहया समाणा काल- अभिमुखां चैव प्रहताः सन्तः कालमासे कालं हुए प्रहत हुए हैं, वे काल मास में काल (मृत्यु) को
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