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________________ श.७: उ. ६ सू.१६२-१६५ वरुण-नागनत्तुय-पदं १६२. बहुजणे णं भंते ! अण्णमण्णस्स एवमाइक्खड़ जाव परूबेड़ एवं खलु बहवे मणुस्सा अण्णयरेसु उच्चावसु संगामेसु अभिगुहा चैव पया समाणा कालमा काल किच्चा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववतारो भवति ॥ १६३. से कहमेयं भंते! एवं ? गोयमा ! जण्णं से बहुजणे अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ जाव परूवेइ - एवं खलु बहवे मनुस्सा अण्णवरेसु उच्चावसु संगामेसु अभिमुहा चैव पहया समाणा कालमासे कालं किच्या अण्णयरेसु देवलोएस देवत्ताए उदयतारो भवति, जे ते एवमाहं मिच्छेते एवमासु । अहं पुण गोया ! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि - एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं वेसाली नामं नगरी होत्था - वण्णओ । तत्थ णं वेसालीए नगरीए वरुणे नामं नागनत्तुए परिवसइ–अड्ढे जाव अपरिभूए, समणोवासए, अभिगयजीवाजीवे जाव समणे निग्गंथे फा-एस णिज्जेणं असण- पाण- खाइम-साइ मेणं नृत्य-पडिग्गह कंवल पायपीट- फलग - सेज्जा - संथारएणं ओसहभेसज्जेणं पडिलामेमाणे छट्ठछट्टेणं अणिखित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरति ॥ १६४. तए णं से वरुणे नागनत्तुए अण्णया कयाइ रायाभिओगेणं, गणाभिओगेणं, बलाभिओगेणं रहमुसले संगामे आणते समाने छट्टभत्तिए अट्ठमभत्तं अणुवट्टेति, अणुवट्टेत्ता कोडुंबिय - पुरिसे सहावे, सहावेत्ता एवं व्यासीखिप्पामेव भो देवाणुपिया ! चाउट आसरहं जुत्तामेव उवावेह, हय-गय-रह-पवरजोहकलियं चाउरंगिणि सेणं सण्णाहेह, सण्णाहेत्ता मम एवमाणत्तियं पच्चपिमह ॥ १६५. तए णं ते कोडुंबियपुरिसा जाव पडिसुणेत्ता खिप्पामेव सच्छतं सज्झयं जाव चाउघंट आसरहं जुत्तामेव उद्वावेति, हम-गय-रह- पवरजोहकलियं चाउरंगिण सेणं सण्णाहेंति, सणात्ता जेणेव वरुणे नागनत्तुए तेणेव उवा Jain Education International ३६२ वरुण-नागनप्तृक-पदम् बहुजनः भदन्त ! अन्योन्यस्य एवमाचक्षते यावत् प्ररूपयति एवं खलु बहवः मनुष्याः अन्यतरेषु उच्चावचेषु संग्रामेषु अभिमुखाः चैव प्रहताः सन्तः कालमासे कालं कृत्वा अन्यतरेषु देवलोकेषु देवत्वेन उपपत्तारो भवन्ति । तत् कथमेतत् भदन्त ! एवम् ? गौतम! यत् स बहुजनः अन्योन्यस्य एवमाचक्षते यावत् प्ररूपयति - एवं खलु वहवः मनुष्याः अन्यतरेषु उच्चावचेषु संग्रामेषु अभिमुखाः चैव प्रहताः सन्तः कालमासे कालं कृत्वा अन्यतरेषु देवलोकेषु देवत्वेन उपपन्नारो भवन्ति, ये ते एवमाहुः मिथ्या ते एवमाहुः । अहं पुनः गौतम! एवमाख्यामि यावत् प्ररूपयामि एवं खलु गौतम! तरिमन् काले तरिमन् समये वैशाली नाम नगरी आसीद्-वर्णकः । तत्र वैशाल्यां नगर्या वरुणो नाम नागनप्तृकः परिवसति — आढ्यः यावद् अपरिभूतः, श्रमणोपासकः अभिगतजीवाजीवः यावत् श्रमणान् निर्ग्रन्थान् प्रासु एषणीयेन अशन- पान - खाद्य- स्वाद्येन वस्त्र - प्रतिग्रह - कम्बल- पादप्रोञ्छनेन पीठ फलक- शय्या-संस्तारकेण औषध-मेषज्येन प्रतिलाभयन् षष्ठषष्ठेण अनिक्षिप्तेन तपःकर्मणा आत्मानं भावयन् विहरति । ततः सः वरुणः नागनप्तृकः अन्यदा कदाचिद् राजाभियोगेन, गणाभियोगेन बलाभियोगेन रथमुसले संग्रामे आज्ञप्तः सन् षष्ठभवत्या अष्टमभक्तं अनुवाति, अनुवार्य कीटम्बिक पुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत्चिप्रमेव भोः देवानुप्रियाः चतुर्घष्टम् अश्वरथं युक्तमेव उपस्थापयत, हय- गज-रथ-प्रवरयोधकलितां चतुरङ्गिणीं सेनां सन्नात, सन्ना मम एतामाज्ञप्तिं प्रत्यर्पयत । ततः ते कौटुम्बिकपुरुषाः यावत् प्रतिश्रुत्य ततः ते कौटुम्बिकपुरुषाः यावत् प्रतिश्रुत्य विप्रमेव सच्च सध्वजं यावच्चतुर्घण्टम् अश्वरथं युक्तमेव उपस्थापयन्ति, हव- गज-रथ-प्रवरयोधकलितां चतुरङ्गिणीं सेनां सन्नह्यन्ति, सन्ना यत्रैव करुणः नागनप्तृकः For Private & Personal Use Only भगवई नाग के धेवता वरुण का पद १६२. भन्ते ! बहुत लोग परस्पर ऐसा आख्यान कर रहे हैं यावत् प्ररूपणा कर रहे हैं अनेक मनुष्य छोटे-बड़े किसी भी संग्राम में लड़ते हुए प्रत्त हो मृत्यु के समय में मरकर किसी देवलोक में देव के रूप में उपपन्न होते है। १६३. भन्ते ! यह कैसे है ? गौतम ! बहुत लोग परस्पर ऐसा आख्यान कर रहे हैं। यावत् प्ररूपणा कर रहे हैं-अनेक मनुष्य छोटे-बड़े किसी भी संग्राम में लड़ते हुए प्रस्त हो मृत्यु के समय में मरकर किसी देवलोक में देव के रूप में उपपन्न होते हैं जो ऐसा कहते हैं वे मिथ्या कहते हैं। गीतम! में ऐसा आख्यान करता हूं यावत् प्ररूपणा करता हूंगौतम ! उस काल और उस समय वैशाली नाम की नगरी थी वर्णन उस वैशाली नगरी में नागनक ( नाग का धेवता ) वरुण रहता था - वह सम्पन्न यावत् अपरिभवनीय था। वह श्रमणों की उपासना करने वाला, जीव- अजीव को जानने वाला, यावत् श्रमण-निर्ग्रन्थों को प्राशुक और एषणीय अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कंबल, पाद- प्रोञ्छन, पीठ-फलक, शय्यासंस्तारक और औषध-मेज्य का दान देने वाला निरन्तर वेले देले के तप:कर्म द्वारा आपने आपको भावित करता हुआ बिहरण कर रहा है। १६४. युद्ध का प्रसंग उपस्थित होने पर राजाभियोग, गणाभियोग, बलाभियोग के द्वारा नागनप्तृक वरुण रथमुसल संग्राम में जाने की आज्ञा प्राप्त हुई। उस दिन वह बेला (दो दिन का उपवास) की तपस्या में था। उसने तेला (तीन दिन का उपवास) कर लिया, तप सम्पन्न कर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, बुला कर कहा- देवानुप्रियो ! शीघ्र ही चार घण्टाओं वाले अश्वरथ को जोत कर उपस्थित करो; अश्व, गज, रथ और प्रवर योद्धा से युक्त चतुरंगिणी सेना को सन्नद्ध करो, सन्नद्ध कर शीघ्र ही मेरी इस आज्ञा का प्रत्यर्पण करो। १६५. कीटुम्बिक पुरुषों ने यावत् स्वीकार कर शीघ्र ही छत्र और ध्वजायुक्त यावत् चार घण्टाओं वाले अश्वरथ को जोत कर उपस्थित किया तथा अश्व, गज, रथ और प्रवर योद्धा से युक्त चतुरंगिणी सेना को सन्नद्ध किया, सन्नद्ध कर जहां नागनप्तृक वरुण www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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