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________________ श.६ : उ.५ : सू.८५-९० २७२ भगवई तप्पढमयाए पासित्ता णं खुभाएज्जा, अहेणं तत्प्रथमतया दृष्ट्वा क्षुभ्येत्, अध: अभिअभिसमागच्छेज्जा तओ पच्छा सीहं-सीहं समागच्छेत् तत: पश्चात् शीघ्र-शीघ्रं त्वरितंतुरियं-तुरियं खिप्पामेव वीतीवएज्जा। -त्वरितं क्षिप्रमेव व्यतिव्रजेत् ।। उसे देखकर प्रथम दर्शन में क्षुब्ध हो जाता है; यदि वह उसमें प्रविष्ट हो जाता है तो उसके पश्चात् अतिशीघ्रता और अतित्वरा के साथ झटपट उसके बाहर चला जाता है। ८६. तमुक्कायस्स णं भंते ! कति नामधेज्जा तमस्काय भदन्त ! कति नामधेयानि प्रज्ञ- ८६. भन्ते ! तमस्काय के कितने नाम हैं? पण्णता? प्तानि? गोयमा ! तेरस नामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा गौतम ! त्रयोदश नामधेयानि प्रज्ञप्तानि, तद् गौतम ! तमस्काय के तेरह नाम प्रज्ञप्त हैं, जैसे –तमे इ वा, तमुक्काए इ वा, अंधकारे इ यथा-तम: इति वा, तमस्काय: इति वा, तम, तमस्काय, अन्धकार, महान्धकार, लोकावा, महंधकारे इ वा, लोगंधकारे इ वा, अन्धकारः इति वा, महान्धकारः इति वा, न्धकार, लोकतमिस्र, देवान्धकार, देवतमिस्र, देवालोगतमिसे इवा, देवंधकारे इवा, देवतमिसे लोकान्धकारः इति वा, लोकतमिस्रम् इति रण्य, देवव्यूह, देवपरिघ, देवप्रतिक्षोभ, अरुणोदक इ वा, देवरण्णे इ वा, देववूहे इ वा, देव- वा, देवान्धकारः इति वा, देवतमिस्रम् इति समुद्रा फलिहे इवा, देवपडिक्खोभे इवा, अरुणोदए वा, देवारण्यम् इति वा, देवव्यूह: इति वा, इ वा समुद्दे॥ देवपरिघ : इति वा, देवप्रतिक्षोभ: इति वा, अरुणोदय: इति वा समुद्रः। ८७. तमुक्काए णं भंते ! किं पुढविपरिणामे? तमस्काय: भदन्त ! किं पृथिवीपरिणाम:? ८७. भन्ते ! तमस्काय क्या पृथ्वी का परिणमन है? आउपरिणामे? जीवपरिणामे? पोग्गल- अप्परिणामः? जीवपरिणाम:? पुद्गल- जल का परिणमन है? जीव का परिणमन है? पुद्गल परिणाम? परिणाम:? का परिणमन है? गोयमा! नो पुढविपरिणामे, आउपरिणामे गौतम ! नो पृथिवीपरिणाम: अप्परि- गौतम ! तमस्काय पृथ्वी का परिणमन नहीं है, जल वि, जीवपरिणामे वि, पोग्गलपरिणामे वि॥ णाम:अपि, जीवपरिणाम: अपि, पुद्गल- का परिणमन भी है, जीव का परिणमन भी है, पुद्गल परिणाम:अपि। का परिणमन भी है। ८८. तमुक्काए णं भंते ! सव्वे पाणा भूया तमस्काये भदन्त ! सर्वे प्राणा: भूता: जीवा: ८८. भन्ते ! क्या तमस्काय में सब प्राण, भूत, जीव जीवा सत्ता पुढवीकाइयत्ताए जाव तस- सत्त्वा: पृथिवीकायिकतया यावत् त्रस- और सत्त्व पृथ्वीकाय रूप में यावत् त्रसकाय रूप में काइयत्ताए उववन्नपुवा? कायिकतया उपपन्नपूर्वा:? उपपन्न पूर्व हैं? हंता गोयमा! असतिं अदुवा अणंतक्खुत्तो, हन्त गौतम ! असकृद् अथवा अनन्तकृत्व:, हां, गौतम ! अनेक बार अथवा अनन्त बार उत्पन्न नो चेव णं बादरपुढविकाइयत्ताए, बादर- नो चैव बादरपृथिवीकायिकतया, बादराग्नि- हुए हैं, पर बादर पृथ्वीकायिक और बादर अग्निअगणिकाइयत्ताए वा। कायिकतया वा। कायिक के रूप में उपपन्न नहीं हुए। कण्हराइ-पदं कृष्णराजि-पदम् ८९. कइणं भंते ! कण्हरातीओ पण्णत्ताओ? कति भदन्त ! कृष्णराजय: प्रज्ञप्ता:? गोयमा! अट्ठ कण्हरातीओ पण्णत्ताओ॥ गौतम ! अष्ट कृष्णराजयः प्रज्ञप्ताः। कृष्णराजि-पद ८९. भन्ते ! कृष्णराजियां कितनी प्रज्ञप्त हैं? गौतम ! आठ कृष्णराजियां प्रज्ञप्त हैं। ९०. कहिणं भंते ! एयाओ अट्ठ कण्हरातीओ कुत्र भदन्त ! एता: अष्ट कृष्णराजय: प्रज्ञ- ९०, भन्ते ! ये आठ कृष्णराजियां कहां प्रज्ञप्त हैं? पण्णत्ताओं? प्ता:? गोयमा ! उप्पिं सणंकुमार-माहिंदाणं गौतम ! उपरि सनत्कुमार-माहेन्द्रयोः कल्प- गौतम ! सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्प से ऊपर कप्पाणं, हव्विं बंभलोए कप्पे रिठे यो: 'हव्विं ब्रह्मलोके कल्पे रिष्टे विमान- ब्रह्मलोक कल्प में रिष्ट विमान प्रस्तर के समानान्तर विमाणपत्थडे, एत्थ णं अक्खाडग- प्रस्तटे, अत्र अक्षपाटक-समचतुरस्र- आखाटक के आकार वाली समचतुरस्र संस्थान से -समचउरंस-संठाण-संठियाओ अट्ठ कण्ह- -संस्थान-संस्थिताः अष्ट कृष्णराजय: प्र- संस्थित आठ कृष्णराजियां प्रज्ञप्त हैं, जैसे-दो पूर्व रातीओ पण्णत्ताओ, तं जहा–पुरत्थिमे णं ज्ञप्ताः, तद् यथा—पौरस्त्ये द्वे, पश्चिमे द्वे, में, दो पश्चिम में, दो दक्षिण में और दो उत्तर में। पूर्व Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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