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________________ भगवई २७३ श.६: उ.५: सू.९०-९२ दो, पच्चत्थिमे णं दो, दाहिणे ण दो, उत्तरे दक्षिणे द्वे, उत्तरे द्वे। पौरस्त्याभ्यन्तरा णं दो। पुरत्थिमन्भंतरा कण्हराती दाहिण- कृष्णराजि: दक्षिण-बाह्यां कृष्णराजिं बाहिरं कण्हरातिं पुट्ठा, दाहिणभंतरा स्पृष्टा, दक्षिणाभ्यन्तरा कृष्णराजि: कण्हराती पच्चत्थिम-बाहिरं कण्हरातिं पश्चिम-बाह्यां कृष्णराजिं स्पृष्टा, पुट्ठा, पच्चत्थिमन्भंतरा कण्हराती उत्तर- पश्चिमाभ्यन्तरा कृष्णराजि: उत्तर-बाह्यां बाहिरं कण्हरातिं पुट्ठा, उत्तरम्भंतरा कृष्णराजिं स्पृष्टा, उत्तराभ्यन्तरा कृष्णराजिः कण्हराती पुरत्थिम-बाहिरं कण्हरातिं पुट्ठा। पौरस्त्य-बाह्यां कृष्णराजिं स्पृष्टा। दो पुरत्थिम-पच्चत्थिमाओ बाहिराओ द्वे पौरस्त्यपश्चिमे बाह्ये कृष्णराजी षडझे, कण्हरातीओ छलंसाओ, दो उत्तरदाहि- द्वे उत्तर-दक्षिणे बाह्ये कृष्णराजी त्र्यो, द्वे णाओ बाहिराओ कण्हरातीओ तंसाओ, दो पौरस्त्य-पश्चिमे आभ्यन्तरे कृष्णराजी पुरत्थिम-पच्चत्थिमाओ अब्भंतराओ चतुरस्रे, द्वे उत्तर-दक्षिणे आभ्यन्तरे कृष्णकण्हरातीओ चउरंसाओ, दो उत्तर-दा- राजी चतुरस्रे। हिणाओ अब्भतराओ कण्हरातीओ चउरंसाओ। दिशा की भीतरी कृष्णराजि दक्षिण दिशा की बाहरी कृष्णराजि का स्पर्श करती है। दक्षिण दिशा की भीतरी कृष्णराजि पश्चिम दिशा की बाहर कृष्णराजि का स्पर्श करती है। पश्चिम दिशा की भीतरी कृष्णराजि उत्तर दिशा की बाहरी कृष्णराजि का स्पर्श करती है। उत्तर दिशा की भीतरी कृष्णराजि पूर्व दिशा की बाहरी कृष्णराजि का स्पर्श करती है। दो पूर्व और पश्चिम की बाहरी कृष्णराजियां षट्कोण हैं, दो उत्तर और दक्षिण की बाहरी कृष्णराजियां त्रिकोण हैं, दो पूर्व और पश्चिम की भीतरी कृष्णराजियां चतुष्कोण हैं, दो उत्तर और दक्षिण के भीतरी कृष्णराजियां चतुष्कोण हैं। संगहणी गाहा पुवावरा छलसा, तंसा पुण दाहिणुत्तरा बज्झा। अभंतरा चउरसा, सव्वा वि य कण्हरातीओ॥१॥ संग्रहणी गाथा पूर्वापरे षडझे, त्र्यो पुन: दक्षिणोत्तरे बाह्ये। अभ्यन्तरा: चतुरस्राः, सर्वा अपि च कृष्णराजयः।।१।। संग्रहणी गाथा पूर्व और पश्चिम की बाहरी कृष्णराजियां षट्कोण हैं, दक्षिण और उत्तर की बाहरी कृष्णराजियां त्रिकोण हैं और सभी भीतरी कृष्णराजियां चतुष्कोण हैं। जशप्तह! ९१. कण्हरातीओ णं भंते ! केवतियं आया- कृष्णराजय: भदन्त ! कियत्य: आयामेन? ९१. भन्ते! कृष्णराजियों का आयाम (लम्बाई) कितना, मेणं? केवतियं विक्खंभेणं? केवतियं परि- कियत्य: विष्कम्भेण? कियत्य: परिक्षेपेण विष्कम्भ (चौड़ाई) कितना और परिक्षेप (परिधि) क्खेवेणं पण्णत्ताओ? प्रज्ञप्ता:? कितना प्रज्ञप्त है? गोयमा ! असंखेज्जाई जोयणसहस्साइं गौतम! असंख्येयानि योजनसहस्राणि गौतम ! उनका आयाम असंख्येय हजार योजन, आयामेणं, संखेज्जाइं जोयणसहस्साई आयामेन, संख्येयानि योजनसहस्राणि विष्कम्भ संख्येय हजार योजन और परिक्षेप असंख्येय विक्खंभेणं, असंखेज्जाइं जोयणसहस्साई विष्कम्भेण, असंख्येयानि योजनसहस्राणि हजार योजन प्रज्ञप्त हैं। परिक्खेवेणं पण्णत्ताओ॥ परिक्षेपेण प्रज्ञप्ताः । ९२. कण्हरातीओ णं भंते ! केमहालियाओ कृष्णराजय: भदन्त ! कियन्महत्य: प्रज्ञ- ९२. भन्ते ! कृष्णराजियां कितनी बड़ी प्रज्ञप्त हैं? पण्णत्ताओ? प्ता:? गोयमा ! अयं णं जंबुद्दीवे दीवे जाव देवे णं गौतम ! अयं जम्बूद्वीप: द्वीप: यावद् देव: गौतम ! यह जम्बूद्वीप द्वीप यावत् कोई महान् ऋद्धिमहिढीए जाव महाणुभावे इणामेव-इणामेव महर्द्धिक: यावन् महानुभाव: इदमेव-इदमेव वाला यावत् महान् अनुभाव वाला देव 'यह रहा, यह त्ति कटु केवलकप्पं जंबूदीवं दीवं तिहिं इति कृत्वा केवलकल्पं जम्बूद्वीपं द्वीपं त्रिभिः रहा'-इस प्रकार कह कर सम्पूर्ण जम्बूद्वीप द्वीप में अच्छरानिवाएहिं तिसत्तक्खुत्तो अणुपरि- 'अच्छ।' निपातैः त्रिसप्तकृत्व: अनुपर्यट्य तीन बार चुटकी बजाने जितने समय में इक्कीस बार यट्टित्ता णं हव्वमागच्छिज्जा, से णं देवे ताए ‘हब्वं' आगच्छेत्, स देव: तया उत्कृष्टया घूम कर शीघ्र ही आ जाता है। वह देव उस उत्कृष्ट, प्रकिटातीय जात दिलाए देवाईए त्वरितया यावद दिव्यया देवगत्या व्यतित- त्वरित यावत दिव्य देवगति से परिव्रजन करता हुआ वीईवयमाणे-वीईवयमाणे जाव एकाहं वा, जन्-व्यतिव्रजन् यावद् एकाहं वा, यह वा, -परिव्रजन करता हुआ यावत् एक दिन, दो दिन, तीन दुयाहं वा, तियाहं वा, उक्कोसेणं अद्धमासं त्र्यहं वा, उत्कर्षेण अर्द्धमासं व्यतिव्रजेत् । दिन अथवा उत्कर्षत: पन्द्रह दिन परिव्रजन करे तो वीईवएज्जा, अत्थेगइयं कण्हरातिं वीई- अस्त्येककां कृष्णराजिंव्यतिव्रजेत्, अस्त्ये-- किसी कृष्णराजि का अतिक्रमण कर जाता है और वएज्जा, अत्थेगइयं कण्हरातिं णो वीईव- कका: कृष्णराजिनो व्यतिव्रजेत्। इयन्महत्यः किसी कृष्णराजि का अतिक्रमण नहीं कर पाता। Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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