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________________ सत्तमो उद्देसो : सातवां उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद संवुडस्स किरिया-पदं संवृतस्य क्रिया-पदम् संवृत का क्रिया-पद १२५. संवुडस्स णं भंते ! अणगारस्स आउत्तं संवृतस्य भदन्त ! अनगारस्य आयुक्तं गच्छतः, १२५.' भन्ते ! जो संवृत अनगार आयुक्त दशा में (दत्तचित्त गच्छमाणस्स, आउत्तं चिट्ठमाणस्स, आउत्तं आयुक्तं तिष्ठतः, आयुक्तं निषीदतः, आयु- होकर) चलता है, खड़ा होता है, बैठता है, लेटता है, निसीयमाणस्स, आउत्तं तुयट्टमाणस्स, आउत्तं क्तं त्वग्वर्तयतः, आयुक्तं वस्त्र प्रतिग्रह वस्त्र, पात्र, कम्बल और पाद-प्रोञ्छन लेता अथवा वत्थं पडिग्गहं कंबलं पादपुंछणं गेण्हमाणस्स कम्बलं पादप्रोञ्छनं गृहन्तो वा निक्षिपतो वा, रखता है, भन्ते ! क्या उसके ऐर्यापथिकी क्रिया होती है वा निक्खिवमाणस्स वा, तस्स णं भंते ! किं तस्य भदन्त ! किम् ऐर्यापथिकी क्रिया क्रियते? अथवा साम्परायिकी क्रिया होती है ? इरियावहिया किरिया कज्जइ ? संपराइया साम्परायिकी क्रिया क्रियते ? किरिया कज्जइ? गोयमा ! संवुडस्स णं अणगारस्स आउत्तं गौतम ! संवृतस्य अनगारस्य आयुक्तं गौतम ! संवृत अनगार आयुक्त दशा में चलता है गच्छमाणस्स जाव तस्स णं इरियावहिया गच्छतः यावत् तस्य ऐर्यापथिकी क्रिया यावत् उसके ऐर्यापथिकी क्रिया होती है, साम्परायिकी किरिया कज्जइ, नो संपराइया किरिया कज्जइ॥ क्रियते, नो साम्परायिकी क्रिया क्रियते । क्रिया नहीं होती। १२६. से केणतुणं भंते ! एवं बुच्चइ-संवुडस्स तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-संवृतस्य णं अणगारस्स आउत्तं गच्छमाणस्स जाव नो अनगारस्य आयुक्तं गच्छतः यावन् नो संपराइया किरिया कज्जइ? साम्परायिकी क्रिया क्रियते? गोयमा ! जस्स णं कोह-माण-माया-लोभा गौतम ! यस्य क्रोध-मान-माया-लोभाः व्यु- वोच्छिण्णा भवंति, तस्स णं इरियावहिया च्छिन्नाः भवन्ति, तस्य ऐर्यापथिकी क्रिया किरिया कज्जइ, जस्स णं कोह-माण-माया- क्रियते, यस्य क्रोध-मान-माया-लोभाः अव्यु-लोभा अवोच्छिण्णा भवंति, तस्स णं संपराइया छिन्नाः भवन्ति, तस्य साम्परायिकी क्रिया किरिया कज्जइ। अहासुत्तं रीयमाणस्स इरिया- क्रियते । यथासूत्रं रियतः ऐपिथिकी क्रिया वहिया किरिया कज्जइ, उस्सुत्तं रीयमाणस्स क्रियते, उत्सूत्रं रियतः साम्परायिकी क्रिया संपराइया किरिया कज्ज्इ। से णं अहासुत्तमेव क्रियते । सः यथासूत्रमेव रियति। तत् तेनार्थेन रीयइ। से तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ- गौतम ! एवमुच्यते-संवृतस्य अनगारस्य संवुडस्स णं अणगारस्स आउत्तं गच्छमाणस्स आयुक्तं गच्छतः यावन् नो साम्परायिकी क्रिया जाव नो संपराइया किरिया कज्ज्छ । क्रियते। १२६. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है---- संवृत अनगार आयुक्त दशा में चलता है यावत् साम्परायिकी क्रिया नहीं होती? गौतम ! जिसके क्रोध, मान, माया, और लोभ व्यवच्छिन्न हो जाते हैं, उसके ऐर्यापथिकी क्रिया होती है, जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ व्यवच्छिन्न नहीं होते, उसके साम्परायिकी क्रिया होती है। यथासूत्र--- सूत्र के अनुसार चलने वाले के ऐपिथिकी क्रिया होती है, उत्सूत्र--सूत्र के विपरीत चलने वाले के साम्परायिकी क्रिया होती है। वह (जिसके क्रोध, मान, माया, और लोभ व्यवच्छिन्न होते हैं) यथासूत्र ही चलता है। गौतम! यह इस अपेक्षा से कहा जा रहा है--संवृत अनगार जो आयुक्त दशा में चलता है यावत् साम्परायिकी क्रिया नहीं होती। भाष्य १. सूत्र १२५, १२६ द्रष्टव्य भ. ७/२० का भाष्य । संवृत के लिए द्रष्टव्य भ. १/४४-४७ का भाष्य । dain Education Intermational Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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