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श.३: उ.७:सू.२६८
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भगवई वण्णवुट्ठी इ वा, चुण्णवुट्ठी इ वा, गंधवुट्ठी फलवृष्टि इति वा, बीजवृष्टिः इति वा, माल्यवृष्टिः हों, वहां धन का न्यास करने वालों का गोत्रगृह इ वा, वत्थवुट्ठी इ वा, भायणवुट्ठी इ वा, इति वा, वर्णवृष्टिः इति वा, चूर्णवृष्टिः इति कम रहा हो, उनका स्वामित्व उच्छिन्न हो गया खीरवुट्ठी इ वा, सुकाला इ वा, दुक्काला वा, गन्धवृष्टिः इति वा, वस्त्रवृष्टिः इति वा, हो, उनमें धन का न्यास करने वाले उच्छिन्न इ वा, अप्पग्घा इ वा, महग्घा इ वा, भाजनवृष्टिः इति वा, क्षीरवृष्टिः इति वा, हो गए हों, (उन तक जाने वाले मार्ग उच्छिन्न सुभिक्खा इ वा, दुभिक्खा इ वा, सुकालाः इति वा, दुष्कालाः इति वा, अल्पायाः हो गए हों) वहां धन का न्यास करने वालों के कयविक्कया इ वा, सण्णिही इ वा, इति वा, महााः इति वा, सुभिक्षानि इति गोत्र-गृह उच्छिन्न हो गए हों। वहां जो दुराहे, सण्णिचया इ वा, निही इ वा, निहाणाइ वा, दुर्भिक्षानि इति वा, क्रयविक्रयाणि इति वा, तिराहे, चौराहे, चोक चारों ओर प्रवेशद्वार वाले वा-चिरपोराणाइ वा, पहीणसामियाइ वा, संनिधयः इति वा, संनिचयाः इति वा, निधयः स्थान, राजपथ और वीथियों में, नगर के जलनिर्गमन पहीणसेतुयाइ वा, पहीणमग्गाइ वा, इति वा, निधानानि वा-चिरपुराणानि वा, मार्गों में, श्मशानगृहों, गिरिगृहों, कन्दरागृहों, पहीणगोत्तागाराइ वा, उच्छण्णसामियाइ वा, प्रहीणस्वामिकानि वा, प्रहीणसेतुकानि वा, शांतिगृहों, शैलगृहों, उपस्थानगृहों और भवनगृहों उच्छण्णसेतुयाइ वा, (उच्छण्णमग्गा इ वा?) प्रहीणमार्गाणि वा, प्रहीणगोत्रागाराणि वा, में जो निधान निक्षिप्त हैं-वे देवेन्द्र देवराज शक्र उच्छण्णगोत्तागारा इ वा, सिंघाडग- उत्सन्नस्वामिकानि वा, उत्सन्नसेतुकानि वा, के लोकपाल महाराज वैश्रवण और वैश्रवणकायिक -तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु (उत्सन्नमार्गाणि इति वा?) उत्सन्नगोत्रागाराणि देवों से अज्ञात, अदृष्ट, अश्रुत, अस्मृत और वा, नगरनिद्धमणेसु वा, सुसाण-गिरि-कंदर- इति वा, शृंगाटक-त्रिक-चतुष्क-चत्वर-चतुर्मुख- अविज्ञात नहीं होती। -संति-सेलोवट्ठाण-भवणगिहेसु संनिक्खित्ताई -महापथ-पथेषु वा, नगरनिर्धमनेषु वा, श्मचिटुंति, न ताई सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो शान-गिरि-कन्दरा-शान्ति-शैलोपस्थानभवनगृहेषु वेसमणस्स महारण्णो अण्णायाई अदिवाइं संनिक्षिप्तानि तिष्ठन्ति, न तानि शक्रस्य देवेन्द्रस्य असुयाइं अमुयाई अविण्णायाई, तेसिं वा देवराजस्य वैश्रवणस्य महाराजस्य अज्ञातानि, वेसमणकाइयाणं देवाणं ॥
अदृष्टानि, अश्रुतानि, अस्मृतानि, अविज्ञातानि, तेषां वा वैश्रवणकायिकानां देवानाम् ।
भाष्य
१. सूत्र २६८
वृत्तिकार ने पहीणसेउय का संस्कृत रूप 'प्रहीणसेचक' धन शब्द-विमर्श
का प्रक्षेप करने वाला किया है।'
प्रहीणगोत्रागार-जिस स्वामी के गोत्र और गृह नष्ट हो गए हों। वसुधारा-आकाश से गिरने वाली रत्नों की धारा।
उच्छिन्न (उच्छण्ण)-ठाणं में इसी प्रसंग में उच्छिण्ण शब्द का वर्णवर्षा-चन्दन आदि की वर्षा ।
प्रयोग मिलता है। दोनों का अर्थ एक है। चूर्णवर्षा-गन्धद्रव्य-निष्पन्न चूर्ण की वर्षा ।
नगरनिद्धमण-निद्धमण देशी शब्द है। इसका अर्थ है 'जलथोडी वर्षा को वर्षा और अधिक वर्षा को वृष्टि कहा जाता है। निर्गमन का नाला। अल्पार्ध्य-अल्पमूल्य।
श्मशानगृह-श्मशान में होने वाला गृह। महाग्रं-बहुमूल्य।
गिरिगृह-पर्वत के ऊपर स्थित गृह। सन्निधि-घृत-गुड़ आदि का संग्रह।
कन्दरगृह-गुफा। संनिचय-धान्य का संग्रह।
शान्तिगृह-शान्ति कर्म करने का स्थान। निधि- धन का संग्रह।
शैलगृह-पर्वत को उत्कीर्ण कर बनाया गया गृह 'लेणी' । निधान-भूमि में गाड़ा हुआ धन।
उपस्थानगृह-सभामण्डप। प्रहीणसेतुक-जिसका सेतु या कारण नष्ट हो गया हो।
भवनगृह-कुटुबियों के रहने का मकान ।'
१. भ. ७.३/२६८.-'पहीणसेउयाइंति प्रहीणाः-अल्पीभूताः सतार:-सेचका:-धनप्रक्षेप्तारी
येषां तानि तथा। २. वहीं, ३/२६८ - पहीणगोत्तागाराईति प्रहीणं विरलीभूतमानुपं गोत्रागार-तत्स्वामिगोत्रगृह
येषां तानि तथा। ३. ठाणं, ५/२१,२२।
४. भ. वृ. ३/२६८.... 'नगरांनद्धवणेस' ति 'नगरनि मनेप' नगरजलनिर्गमनेष 'सुसाणगिरिकन्दरसतिसेलोवट्ठाणभवर्णागहेसु' ति गृहशब्दस्य प्रत्येक संबन्धात् श्मशानगृहपितृवनगृहं, गिरिगृह-पर्वतोपरिगृहं, कन्दरगृह-गुहा, शांतिगृह-शांतिकर्मस्थान, शेलगृह-पर्वतमुत्कीर्य यत्कृतं, उपस्थानगृह-आस्थानमण्डपो, भवनगृह-कुटुम्बीवसनगृहमिति।
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