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भगवई
६. समणोवासए णं भंते ! तहारूवं समणं वा माहणं वा फासु-एसणिज्जेणं असण- पाण-खाइम साइमेणं पडिला भेमाणे किं चयति ? गोयमा जीवियं चयति दुच्चयं चयति, दुक्करं करेति, दुल्लह लहइ, बोहिं बुज्झइ, तओ पच्छा सिज्झति जाव अंतं करेति ॥
अकम्मस्स गति-पदं
१०. अत्थि णं भंते! अकम्मस्स गती पण्णायति ? हंता अत्थि ॥
१. सूत्र ८, ६
प्रस्तुत आलापक में संयमी दान का प्रसंग है। दाता श्रमणोपासक है। देय वस्तु शुद्ध और एषणीय है लेने वाला श्रमण है। इस विशुद्ध दान के विषय में जिज्ञासा है उसका उत्तर है-श्रमणोपासक अपने विशुद्ध दान के द्वारा श्रमण के मन में समाधि उत्पन्न कर रहा है। समाधि देने का प्रतिफल है कि उसे भी वैसी ही समाधि प्राप्त होती है।
'समाधि' शब्द के अनेक अर्थ होते हैं।' प्रस्तुत प्रकरण में उसके ये अर्थ घटित हो सकते हैं मन की स्वस्थता, शांति, सहारा ।
प्रस्तुत प्रकरण में चयइ धातु का प्रयोग है। वृत्तिकार ने उसके दो
११. कहण्णं भंते! अकम्मस्स गती पण्णायति ? गोयमा ! निस्संगयाए, निरंगणयाए, गतिपरिणामेणं, बंधणछेदणयाए, निरिंधणयाए, पुव्यप्पओगेणं अकम्मस्स गती पण्णायति ॥
१२. कण्णं भंते निस्संगवाए निरंगणयाए, गतिपरिणामेणं अकम्मस्स गती पण्णायति ? से जहानामए केइ पुरिसे सुक्कं तुंबं निच्छिड्डं निरुवहयं आणुपुब्बीए परिकम्मेमाणे- परि कम्मेमागे दमेहिं व कुसेहि य वेढे वेढेता अट्ठहिं मट्टियालेवेहिं लिंपइ, लिंपित्ता उन्हे दलपति मूर्ति मूर्ति सुक्कं समाणं अत्या हमतारमपोरिसियंसि उदगंसि पक्खिवेज्जा, से नू गोयमा ! से तुंबे तेसिं अट्ठण्हं मट्टियावाणं गुरुयत्ताए भारित्ताए गुरुसंभारियत्ताए सलिलतलमतिवइत्ता अहे धरणितलपइट्ठाणे भवइ ?
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श्रमणोपासकः भदन्त ! तथारूपं श्रमणं वा माहनं वा प्रासु एषणीयेन अशन-पान-खाद्यस्वाद्येन प्रतिलाभयन् किं त्यजति ? गौतम जीवितं स्वजति दुस्त्यजं त्यजति, दुष्करं करोति, दुर्लभं लभते चोथिं बुध्यते, ततः पश्चात् सिद्ध्यति यावद् अन्तं करोति ।
भाष्य
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अर्थ किए हैं—देना और विरहित करना । 'त्याग' शब्द के दोनों अर्थ होते हैं—त्यागना और देना आहार जीवन का हेतु है; इसलिए जो आहार देता है, वह जीवन देता है - ऐसा कहा जा सकता है। इसका दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि अन्न आदि पदार्थ जीवन की भांति प्रिय होते है। उन्हें देना ऐसा लगता है मानो अपना जीवन दे रहा है। इसलिए इसे दुस्यन और दुष्कर का
गया।
शब्द-विमर्श
१. आप्टे समाधि - collecting, profound or abstract meditation, intentness, penance, obligation, etc.
२. भ. वृ. ७/६ - किं चयइ' त्ति किं ददातीत्यर्थः 'जीवियं चयइ' त्ति जीवितमिव ददाति,
अकर्मणः गति-पदम्
अस्ति भदन्त अकर्मणः गतिः प्रज्ञायते । हन्त अस्ति ।
फासु - प्रासु । भ० १/४३८ का भाष्य द्रष्टव्य है।
अकर्म की गति का पद
१०. ' भन्तो! क्या अकर्म के गति होती है? हाँ, होती है।
कथं भदन्त ! अकर्मणः गतिः प्रज्ञायते ? गौतम ! निःसङ्गतया निरञ्जनतया गतिपरिणामेन बन्धनछेदनतया निरिन्धनतया, पूर्वप्रयोगेण अकर्मणः गतिः प्रज्ञायते ।
कथं भदन्त निःसङ्गतया, निरञ्जनतया गतिपरिणामेन अकर्मणः गतिः प्रज्ञायते ? तद् यथानाम कोऽपि पुरुषः शुष्कं तुम्बं निशिछद्रं निरुपहतम् आनुपूर्व्या परिकर्मयन्परिकर्मयन् दर्भश्च कुशैश्च वेष्टयति वेष्ट यित्वा अष्टभिः मृत्तिकालेपैः लिम्पति, लिम्पित्वा उष्णे ददाति भूर्ति-भूर्ति शुष्कः सन् अस्ताधमतारम् अपौरुषिके उदके प्रक्षिपेत, सः नूनं गौतम ! सः तुम्बः तेषाम् अष्टानां मृत्तिकालेपानां गुरुकतया भारिकतया गुरुसम्भारिकतया सलिलतलमतिपत्य अधः धरणितलप्रतिष्ठानः भवति ?
श. ७: उ.१: सू. ६-१२
६. भन्ते ! श्रमणोपासक तथारूप श्रमण अथवा माहन को अभिलषणीय और एषणीय अशन, पान, खाद्य और स्वाय से प्रतिताभित करता हुआ क्या देता है ? गौतम ! वह जीवन देता है, दुस्त्यज को त्यागता है, दुष्कर करता है, दुर्लभ को पाता है, बोधि का अनुभव करता है, उसके पश्चात् सिद्ध हो जाता है यावत् सब दुःखों का अन्त करता है।
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११. भन्ते ! अकर्म के गति कैसे होती है ? गौतम निस्संगता, निरञ्जनता, गति-परिणाम, ! वन्धन छेदन, निरिन्धन्ता और पूर्व प्रयोग-इन कारणों से अकर्म के गति होती है।
१२. भन्ते! निरसंगता, निरज्जनता और गति परिणामइन कारणों से अकर्म के गति कैसे होती है ? जैसे कोई पुरुष सूखे, निश्छिद्र और निरुपहत तुम्बे का पहले परिकर्म करता है, फिर दर्भ और कुश से उसका वेष्टन करता है, वेष्टित कर आठ मिट्टी के लेपों से लीपता है, लीपकर धूप में रख देता है, प्रभूत शुष्क होने पर उसे अवाह, अत्तरणीय, पुरुष से अधिक परिमाण वाले जल में प्रक्षिप्त कर देता है। गौतम ! क्या वह तुम्बा उन आठ मिट्टी के लेपों की गुरुता से, भारीपन से, अत्यन्त भारीपन से जल के तल तक पहुँचकर नीचे धरातल पर प्रतिष्ठित होता है?
अन्नादि द्रव्यं यच्छन् जीवितस्यैव त्यागं करोतीत्यर्थः जीवितस्येवान्नादिद्रव्यस्य दुस्त्यजत्वात्, एतदेवाह - 'दुच्चयं चयइ 'त्ति दुस्त्यजमेतत्, त्यागस्य दुष्करत्वात्, एतदेवाह - दुष्करं करोतीति, अथवा किं त्यजति किं विरहयति ? उच्यते, जीवितमिव जीवितं कर्म्मणो दीर्घा स्थितिं ।
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