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________________ श.७ : उ.१ : सू.६-८ ३२८ भगवई समणोवासगस्स अणाउट्टिहिंसा-पदं श्रमणोपासकस्य अनावृत्ति-हिंसा-पदम् श्रमणोपासक के अनावृत्ति हिंसा का पद ६. समणोवासगस्स णं मंते ! पुव्वामेव तसपाण- श्रमणोपासकस्य भदन्त ! पूर्वमेव त्रसप्राण- ६.'भन्ते ! श्रमणोपासक के पहले ही त्रस-प्राण का समारम्भ समारंभे पच्चक्खाए भवइ, पुढविसमारंभे समारम्भः प्रत्याख्यातः भवति। पृथ्वीसमारम्भः (हिंसा) का प्रत्याख्यान किया हुआ है, पृथ्वीकायिक अपच्चक्खाए भवइ। से य पुढविं खणमाणे अप्रत्याख्यातः भवति, स च पृथिवीं खनन् जीव के समारम्भ का प्रत्याख्यान किया हुआ नहीं हैं। अण्णयरं तसं पाणं विहिंसेज्जा, से णं भंते! __ अन्यतरं त्रसं प्राणं विहिंस्याद्, स भदन्त ! वह पृथ्वीकाय का खनन करता हुआ किसी त्रस प्राणी तं वयं अतिचरति? तद् व्रतं अतिचरति? की हिंसा करे, भन्ते ! क्या ऐसा करता हुआ वह उस व्रत का अतिचरण करता है? नो इणढे समढे, नो खलु से तस्स अतिवायाए नायमर्थः समर्थः, नो खलु स तस्य अतिपाताय यह अर्थ संगत नहीं है, क्योंकि वह उस त्रस प्राणी के आउट्टति॥ आवर्त्तते। वध के संकल्प से प्रवृत्ति नहीं करता। ७. समणोवासगस्स णं भंते ! पुवामेव वणप्फइ- श्रमणोपासकस्य भदन्त ! पूर्वमेव वनस्पति- ७.भन्ते ! श्रमणोपासक के पहले ही वनस्पति-जीवों के समारंभे पच्चक्खाए। से य पुढविं खणमाणे समारम्भः प्रत्याख्यातः। स च पृथिवीं खनन् समारम्भ का प्रत्याख्यान किया हुआ है। वह पृथ्वी का अण्णयरस्स रुक्खस्स मूलं छिंदेज्जा, से णं अन्यतरस्य रुक्षस्य मूलं छिन्द्यात् स भदन्त ! खनन करता हुआ किसी वृक्ष की जड़ का काट दे, भंते ! तं वयं अतिचरति? तद्वतं अतिचरति? भन्ते ! क्या ऐसा करता हुआ वह उस व्रत का अतिचरण करता है? नो इणढे समढे, नो खलु से तस्स अतिवायाए नायमर्थः समर्थः, नो खलु स तस्य अतिपाताय यह अर्थ संगत नहीं है। क्योंकि वह वनस्पति जीव के आउट्टति ॥ आवर्तते। वध के संकल्प से प्रवृत्ति नहीं करता। भाष्य १. सूत्र ६,७ अतिक्रमण हुआ? इसके उत्तर में कहा गया-उसके व्रत का अतिक्रमण नहीं हिंसा के अनेक विकल्प होते हैं। उनमें प्रथम दो विकल्प मुख्य हैं हुआ। वह संकल्प-हिंसा से निवृत्त हुआ था। मिट्टी खोदते समय किसी वृक्ष की १. आभोग-जनित हिंसा-संकल्प पूर्वक की जाने वाली हिंसा । जड़ कट गई, वह अनाभोग जनित हिंसा है। संकल्प पूर्वक की गई हिंसा नहीं है, २. अनाभोग-जनित हिंसा-अनजान में होने वाली हिंसा। इसलिए उसके व्रत का अतिक्रमण नहीं है। जिज्ञासा की पृष्ठभूमि यह है-एक श्रावक ने संकल्पपूर्वक त्रस अनाभोग-जनित वध भी हिंसा है। अनजान में त्रस जीव का वध जीव के वध का प्रत्याख्यान किया। वह खदान में मिट्टी खोद रहा था। मिट्टी हुआ या वृक्ष कट गया-यह हिंसा ही है। किंतु इस हिंसा से व्रत का अतिक्रमण खोदते समय कोई त्रस जीव मर गया। इस घटना-प्रसंग को लेकर प्रश्न पूछा इसलिए नहीं हुआ कि यह संकल्प पूर्वक की हुई हिंसा नहीं है। गया-क्या उसके व्रत का अतिक्रमण नहीं हुआ? इसके उत्तर में कहा गयाउसके व्रत का अतिक्रमण नहीं हुआ। वह संकल्प-वध से निवृत हुआ था। मिट्टी . शब्द-विमर्श खोदते समय कोई त्रस जीव मर गया, वह अनाभोग जनित वध है, संकल्प समारंभ-हिंसा । द्रष्टव्य भ.३/१४५ का भाष्य पूर्वक किया हुआ वध नहीं है, इसलिए उसके व्रत का अतिक्रमण नहीं है। अतिचरण-अतिक्रमण इसी प्रकार एक श्रावक ने संकल्प पूर्वक वृक्ष काटने का प्रत्याख्यान अतिपात-वध किया। वह खदान में मिट्टी खोद रहा था। मिट्टी खोदते समय किसी वृक्ष की जड़ आउट्टति-संकल्पपूर्वक प्रवृत्ति करना कट गई । इस घटना-प्रसंग को लेकर प्रश्न पूछा गया क्या उसके व्रत का समणपडिलाभेण लाभ-पदं श्रमण-प्रतिलाभेन लाभ-पदम् ८. समणोवासए णं भंते ! तहारूवं समणं वा श्रमणोपासकः भदन्त ! तथारूपं श्रमणं वा माहणं वा फासु-एसणिज्जेणं असण-पाण- माहनं वा प्रासु-एषणीयेन अशन-पान-खाद्य- -खाइम-साइमेणं पडिलाभेमाणे किं लब्भइ? -स्वाद्येन प्रतिलाभयन् किं लभते ? गोयमा ! समणोवासए णं वहारूवं समणं वा गौतम ! श्रमणोपासकः तथारूपं श्रमणं वा माहणं वा फासु-एसणिज्जेणं असण-पाण- माहनं वा प्राशुकैषणीयेन अशन-पान-खाद्य-खाइम-साइमेणं पडिलाभेमाणे तहारुवस्स -स्वायेन प्रतिलाभयन् तथारूपस्य श्रमणस्य समणस्स वा माहणस्स वा समाहिं उप्पाएति, वा माहनस्य वा समाधिम् उत्पादयति, समाधिसमाहिकारए णं तामेव समाहिं पडिलभइ॥ कारकः तामेव समाधिं प्रतिलभते। श्रमण-प्रतिलाभ से लाभ-पद ८. 'भन्ते ! श्रमणोपासक तथारूप श्रमण अथवा माहन को अभिलषणीय और एषणीय अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य से प्रतिलाभित करता हुआ क्या प्राप्त करता है ? गोतम ! श्रमणोपासक तथारूप श्रमण अथवा माहन को अभिलषणीय और एषणीय अशन, पान, खाद्य और स्वाध से प्रतिलाभित करता हुआ तथारूप श्रमण अथवा माहन के समाधि उत्पन्न करता है। समाधि देने वाला व्यक्ति उसी समाधि को प्राप्त करता है। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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