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भगवई
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श.७ : उ.१ : सू.४-५
समणोवासगस्स किरिया-पदं
श्रमणोपासकस्य क्रिया-पदम् श्रमणोपासक की क्रिया का पद ४. समणोवासगस्स णं भंते ! सामाइयकडस्स श्रमणोपासकस्य भदन्त ! कृतसामायिकस्य ४.' भन्ते ! जो श्रमणोपासक सामायिक की साधना में है
समणोवस्सए अच्छमाणस्स तस्स णं मंते ! श्रमणोपाश्रये आसीनस्यः तस्य भदन्त ! किम्। और श्रमणों के उपाश्रय में बैठा हुआ है, उसके क्या किं रियावहिया किरिया कज्जइ ? संपराइया ऐर्यापथिकी क्रिया क्रियते? साम्परायिकी क्रिया ऐर्यापथिकी क्रिया होती है अथवा साम्परायिकी क्रिया किरिया कज्जइ? क्रियते?
होती है? गोयमा ! नो रियावहिया किरिया कज्जइ, गौतम ! नो ऐपिथिकी क्रिया क्रियते, साम्प- गौतम! ऐर्यापथिकी क्रिया नहीं होती, साम्परायिकी संपराइया किरिया कज्जइ ॥ रायिकी क्रिया क्रियते।
क्रिया होती है।
५. से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-नो रिया- तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते-नो ऐर्या- वहिया किरिया कज्जइ ? संपराइया किरिया पथिकी क्रिया क्रियते? साम्परायिकी क्रिया कज्जइ?
क्रियते? गोयमा ! समणोवासयस्स णं सामाइयकडस्स गौतम! श्रमणोपासकस्य कृतसामायिकस्य समणोवस्सए अच्छमाणस्स आया अहिगरणी श्रमणोपाश्रये आसीनस्य आत्मा अधिकरणी भवइ, आयाहिगरणवत्तियं च णं तस्स नो भवति, आत्माधिकरणप्रत्ययं च तस्य नो रियावहिया किरिया कन्जइ, संपराइया ऐर्यापथिकी क्रिया क्रियते, साम्परायिकी क्रिया किरिया कज्जइ । से तेणटेणं ॥ क्रियते। तत् तेनार्थेन ।
५. भन्ते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-श्रमणो
पासक के ऐपिथिकी क्रिया नहीं होती, साम्परायिकी क्रिया होती है? गौतम ! जो श्रमणोपासक सामायिक की साधना में है और श्रमणों के उपाश्रय में बैठा हुआ है, उसकी आत्मा अधिकरणी होती है, आत्मा अधिकरण है, इस कारण उसके ऐर्यापथिकी क्रिया नहीं होती, साम्परायिकी क्रिया होती है। यह इस अपेक्षा से कहा जाता है।
भाष्य
१. सूत्र ४,५
ऐर्यापथिकी क्रिया का विधान करने वाले तीन सूत्र है। 'संवृत' सूत्र का प्रतिपाद्य है कि समित, गुप्त और आयुक्त मुनि के ऐपिथिकी क्रिया होती है।' 'अनायुक्त' सूत्र का प्रतिपाद्य है कि वीतराग के ऐर्यापथिकी क्रिया होती है
और अवीतराग के साम्परायिकी क्रिया होती है। यथासूत्र गति करने वाले के ऐर्यापथिकी क्रिया होती है और उत्सूत्र गति करने वाले के साम्परायिकी क्रिया होती है। भ० ६/१२५, १२६ के 'संवृत' सूत्र में पूर्ववर्ती दोनों सूत्रों का समन्वय मिलता है।
___अवीतराग मुनि के भी ऐपिथिकी क्रिया नहीं होती, उस स्थिति में गृहस्थ में उसकी सम्भावना भी नहीं है। फिर यह प्रश्न क्यों ?
सूत्रकार ने प्रश्न की पृष्ठभूमि का निर्देश किया है। उस पृष्ठभूमि में यह प्रश्न हो सकता है। एक मनुष्य श्रमणोपासक है, घर के वातावरण से दूर श्रमणों के उपाश्रय में बैठ कर सामायिक की साधना कर रहा है। स्थान, सन्निधि और साधना तीनों कषाय को शान्त किए हुए हैं, उस स्थिति में यह प्रश्न पूछना सम्भव है कि उसके ऐर्यापथिकी क्रिया होती है अथवा साम्परायिकी क्रिया होती है ? भगवान महावीर ने इसका उत्तर अधिकरण के आधार पर दिया। यद्यपि वर्तमान में उसका कषाय शान्त है फिर भी वह अधिकरण से युक्त है। अधिकरण- युक्त आत्मा के साम्परायिकी क्रिया ही होती है, ऐर्यापथिकी क्रिया नहीं होती।
अभयदेव सूरि ने अधिकरण का अर्थ हल, शकट आदि किया है। ये कषाय के आश्रयभूत होते हैं। श्रमणोपासक सामायिक में बैठा है, फिर भी उसका अधिकरण के साथ संबंध विच्छिन्न नहीं होता, इसलिए उसकी आत्मा अधिकरणी है। अधिकरणी के ऐर्यापथिकी क्रिया नहीं होती।
अधिकरणी की व्याख्या अविरति के आधार पर की जा सकती है। वह अधिक प्रासंगिक है। गौतम ने पूछा-भन्ते ! जीव अधिकरणी है अथवा अधिकरण है? भगवान ने उत्तर दिया-अविरति की अपेक्षा वह अधिकरणी भी है, अधिकरण भी है।
सामायिक के क्षण में भी श्रमणोपासक के अविरिति रहती है, इसलिए उसकी आत्मा अधिकरणी और अधिकरण दोनों है। अधिकरण की अवस्था में ऐर्यापथिकी क्रिया नहीं हो सकती।
जयाचार्य ने अधिकरण की विशद समीक्षा की है।
प्रस्तुत सूत्र का तात्पर्यार्थ यह है कि अध्यात्म के निर्णय बाह्य दशा के आधार पर नहीं होते। उसके निर्णय का आधार आन्तरिक स्पन्दन बनते हैं। श्रमणोपासक बाहर से पूर्ण शान्त हो कर बैठा है, किंतु उसके आन्तरिक अध्यवसायों में अव्रत और कषाय के स्पन्दन विद्यमान हैं। इसलिए अध्यात्म की भाषा में वह उपशान्तकषाय अथवा क्षीणकषाय नहीं है। जो उपशान्तकषाय अथवा क्षीणकषाय नहीं है, उसके ऐपिथिकी क्रिया नहीं होती।
१भ.३/१४८। २. वही, ७/२० । ३. भ. वृ.७/४-आत्मा--जीवः अधिकरणानि-हलशकटादीनि कषायाश्रयभूतानि यस्य सन्ति सोऽधिकरणी। ततश्च 'आयाहिकरणवत्तियं च णं, त्ति आत्मनोऽधिकरणानि आत्मा-
धिकरणानि तान्येव प्रत्ययः-करणं यत्र क्रियाकरणे तदात्माधिकरणप्रत्ययं साम्परायिकी क्रिया क्रियत इति योगः। ४. भ. १६/६ । ५.भ. जो. २/१११/३६-६८।
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