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श.७ : उ.१ : सू.१-३
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भगवई
पण्णवणा और जीवाजीवाभिगमे में अनाहारक के दो समयों का उल्लेख है। इस आधार पर सिद्धसेनगणी और जयाचार्य ने चार समय की विग्रह गति में प्रथम समय को आहारक बतलाया। किंतु अभयदेवसूरि ने जो तर्क प्रस्तुत किया है, उसका समाधान सरल नहीं है। उनका तर्क है कि उत्पत्तिस्थान तक पहुँचे बिना अन्तरालगति में आहार-योग्य पुद्गलों का अभाव है, इसलिए विग्रह गति का पहला समय अनाहारक होगा। दो और तीन समय वाली गति में यदि प्रथम समय अनाहारक हो, तो चार समय की गति में प्रथम समय आहारक कैसे होगा? सिद्धसेनगणी ने विग्रहगति के सभी प्रकारों में प्रथम समय को आहारक माना है। यह एकरूपता की दृष्टि से तर्क-संगत है।
किंतु प्रस्तुत सूत्र से इसकी संगति नहीं है। प्रस्तुत सूत्र के अनुसार प्रथम समय अनाहारक भी होता है। अभयदेवसूरि ने उत्पत्तिस्थान के पूर्ववर्ती सभी समयों को अनाहारक माना है। यह तार्किक दृष्टि से संगत है। दो समय और तीन समयों की अन्तरालगति में प्रथम समय को अनाहारक माना जाए तथा चार समय की अन्तरालगति में प्रथम समय को आहारक माना जाए-यह क्यों? इसके पीछे कोई तर्क नहीं है। केवल आगम का यह वचन है कि अन्तरालगति में जीव दो समय से अधिक अनाहारक नहीं रहता। मलयगिरि ने इस समस्या को सापेक्षता से सुलझाया है, इसलिए इस सापेक्ष दृष्टिकोण को स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं होनी चाहिए।
सव्वप्पाहारग-पदं
सर्वाल्पाहारक-पदम्
सर्वअल्प आहार-पद २. जीवे णं भंते! कं समयं सवप्पाहारए भवति? जीवः भदन्त ! कं समयं सर्वाल्पाहारकः भवति? २. 'भन्ते ! जीव सबसे अल्प आहार किस समय करता
गोयमा! पढमसमयोववन्नए वा चरिमसमय- गौतम! प्रथमसमयोपपन्नको वा चरमसमयभवत्थे वा, एत्थ णं जीवे सव्वप्पाहारए भवति! भवस्थो वा, अत्र जीवः सर्वाल्पाहारकः भवति! दंडओ भाणियव्वो जाव वेमाणियाणं ॥ दण्डकः भणितव्यः यावद् वैमानिकानाम् ।
गौतम ! उत्पत्ति के प्रथम समय और जीवन के अन्तिम समय में जीव सबसे अल्प आहार करता है। वैमानिक तक सभी दण्डकों में यह वक्तव्यता ।
भाष्य
१. सूत्र २
आत्म-प्रदेशों का संहरण हो जाता है, वे संकुचित होकर शरीर के अल्प अवयवों जन्म का पहला समय और चरम समय-इन दोनों समय में जीव
पन में रह जाते हैं, इसलिए जीवन के अन्तिम क्षण में भी वह सबसे अल्प आहार
करता है। मध्यवर्ती समय में वह अधिक आहार का ग्रहण करता है। सबसे अल्प आहार का ग्रहण करता है। प्रथम समय में स्थूल शरीर का निर्माण नहीं होता, इसलिए वह सबसे अल्प आहार करता है। जीवन के चरम समय में
लोगसंठाण-पदं
लोकसंस्थान-पदम् ३. किंसंठिए णं भंते ! लोए पण्णत्ते? किंसंस्थितः भदन्त! लोकः प्रज्ञप्तः?
गोयमा ! सुपइट्ठगसंठिए लोए पण्णत्ते–हेट्ठा गौतम! सुप्रतिष्ठकसंस्थितः लोकः प्रज्ञप्तविच्छिण्णे, मज्झे संखित्ते, उप्पिं विसाले; अहे अधस्तात् विस्तीर्णः, मध्ये संक्षिप्तः, उपरि पलियंकसंठिए, मज्झे वरवइरविग्गिहिए, उपिं विशालः; अधः पर्यड्कसंस्थितः, मध्ये वरवज्रउद्धमुइंगाकारसंठिए।
विग्रहिकः, उपरि ऊर्ध्वमृदंगाकारसंस्थितः।
लोक-संस्थान-पद ३. 'भन्ते ! लोक किस संस्थान से संस्थित है?
गौतम ! लोक सुप्रतिष्ठक संस्थान से संस्थित है। वह निम्न भाग में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर विशाल है। वह निम्न भाग में पर्यंक के आकार वाला, मध्य में श्रेष्ठ वज्र के आकार वाला और ऊपर ऊर्ध्वमुख मृदंग के आकार वाला है। उस शाश्वत लोक के निम्न भाग में विस्तीर्ण यावत् ऊपर ऊर्ध्वमुख मृदंग के आकार वाले लोक में उत्पन्नज्ञानदर्शन का धारक अर्हत, जिन, केवली जीव को भी जानता है, देखता है, अजीव को भी जानता है, देखता है, उसके पश्चात् वह सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त और . परिनिर्वृत होता है तथा सब दुःखों का अन्त करता है।
तंसि चणं सासयंसि लोगंसि हेट्ठा विच्छिण्णंसि तस्मिन् च शाश्वते लोके अधस्तात् विस्तीर्णे जाव उपिं उद्धमुइंगाकारसंठियंसि उप्पण्ण- यावद् उपरि ऊर्ध्वमृदङ्गाकारसंस्थिते, उत्पन्न-नाण-दसणधरे अरहा जिणे केवली जीवे -ज्ञान-दर्शनधरः अर्हत् जिनः केवली जीवान् वि जाणइ-पासइ, अजीवे वि जाणइ-पासइ, अपि जानाति-पश्यति, अजीवान् अपि तओ पच्छा सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ परिनिव्वाइ जानाति-पश्यति, ततः पश्चात् सिद्ध्यति सव्वदुक्खाणं अंतं करेइ॥
'बुज्झइ' मुच्यते परिनिर्वाति सर्वदुखानाम् अन्तं करोति।
भाष्य
१. सूत्र ३
द्रष्टव्य भ.५/२५४,२५५ का भाष्य।
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