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________________ भगवई ३२५ श.७ : उ.१ : सू.१ दो वक्र और तीन समय वाली विग्रह गति से उत्पन्न होने वाला जीव दोनों परम्पराओं में भिन्न है-एक द्वौ त्रीन्वाऽनाहारकः (तत्त्वार्थराजवार्तिक प्रथम और द्वितीय समय में अनाहारक होता है तथा तृतीय समय में आहारक २/३०) होता है। अकलंक ने विग्रहगति के प्रथम, द्वितीय और तृतीय तीनों समयों को उक्त दोनों संदों के आधार पर यह सिद्धांत फलित होता है- अनाहारक बतलाया है। द्वितीय समय में स्यात् आहारक, स्यात् अनाहारक। श्वेताम्बर-परम्परा के अनुसार सूत्रपाठ इस प्रकार है३. कोई जीव तीन समय और दो वक्र वाली गति से उत्पत्ति-स्थान एकं द्वौ वाऽनाहारकः (तत्त्वार्थाधिगम सूत्रम्सभाष्य टीका, २/३१) तक जाता है तब वह प्रथम और द्वितीय समय में अनाहारक होता है तथा तृतीय सिद्धसेनगणी ने इस सूत्र की व्याख्या में लिखा है-दो वक्र वाली समय में आहारक होता है। तीन समय की गति में मध्यवर्ती समय अनाहारक है तथा तीन विग्रह और चार तीन वक्र और चार समय वाली विग्रहगति से उत्पत्ति-स्थान तक समय वाली गति में मध्यवर्ती दो समय अनाहारक होते हैं।" जाने वाला जीव प्रथम समय में आहारक, द्वितीय और तृतीय समय में अनाहारक जयाचार्य ने अभयदेवसूरि के मत की समीक्षा की है तथा अनाहारक होता है। के दो समय के सिद्धान्त का समर्थन किया है।" उक्त दोनों संदों के आधार पर यह सिद्धान्त फलित होता है- ... पण्णवणा और जीवाजीवाभिगमे में अनाहारक के दो समयों का तृतीय समय में स्यात् आहारक, स्यात् अनाहारक। उल्लेख है। अभयदेवसूरि ने वक्रगति के प्रथम, द्वितीय और तृतीय-तीनों इन दोनों सूत्रों के टीकाकार मलयगिरि हैं। उनके अनुसार यह सूत्र समयों में जीव को अनाहारक बतलाया है।' मतान्तर के अनुसार पांच समय सापेक्ष है। बहुलतया दो समय या तीन समय की विग्रहगति होती है। वाली अन्तरालगति में अनाहारक रहने के चार समयों का उल्लेख है। इस अपेक्षा से अनाहारक अवस्था के दो समयों का उल्लेख किया गया है। अनाहारक विषयक तत्वार्थाधिगम का सूत्र श्वेताम्बर और दिगम्बर उक्त चर्चा का निष्कर्ष जानने के लिए देखें यंत्रग्रन्थ नाम एक समय की गति । दो समय की गति तीन समय की गति चार समय की गति अनाहारक आहार | अनाहारक आहारक अनाहारक आहारक अनाहारक ____ आहारक १ भगवती वृत्ति आहारक प्रथम प्रथम, द्वितीय तृतीय प्रथम, द्वितीय,तृतीय | चतुर्थ २ भगवती जोड़ द्वितीय,तृतीय प्रथम, चतुर्थ ३ प्रज्ञापना तथा प्रज्ञापना वृत्ति ४ जीवाजीवाभिगम तथा जीवाजीवाभिगम वृत्ति ५ तत्वार्थभाष्य टीका प्रथम,द्वितीय द्वितीय प्रथम, तृतीय द्वितीय, तृतीय प्रथम,चतुर्थ ६ तत्त्वार्थराजवार्तिक | प्रथम द्वितीय प्रथम,द्वितीय तृतीय प्रथम,द्वितीय, तृतीय चतुर्थ द्वितीय १.भ. वृ.७/१--- (क) यदा तु विग्रहगत्या गच्छति तदा प्रथमसमये वक्रे ऽनाहारको भवति, उत्पत्तिस्थानानवाप्तो तदाहारणीयपुद्गलानामभावात्। (ख) यदेकेन वक्रेण द्वाभ्यां समयाभ्यामुत्पद्यते तदा प्रथमेऽनाहारको द्वितीया त्वाहारकः। (ग) यदा वकद्वयेन त्रिभिः समयैरुत्पद्यते तदाऽऽद्ययोरनाहारकरततीये त्वाहारकः।। (घ) यदा तु वक्रत्रयेण चतुर्भिः समयैरुत्पद्यते तदाद्ये समयत्रयेऽनाहारकश्चतुर्थे तु नियमादाहारकः । २. वही, ७/१-- अन्ये त्वाः --वक्रचतुष्टयमपि संभवति, यदा हि विदिशो विदिश्येवोत्पद्यते तत्र समयत्रयं प्राग्वत्, चतुर्थे समये तु नाडीतो निर्गत्य समणि प्रतिपद्यते, पञ्चमेन तृत्पतित्तस्थानं प्राप्नोति, तत्र चाद्ये समयचतुष्टये चक्रचतुष्टयं स्यात, तत्र चानाहारक इति, इंद च सूत्रे न दर्शितम्। प्रायेणेत्थमनुत्पत्तेरिति। ३. त. रा. वा. २/३०-पाणिमुक्तायामेकविग्रहायां द्विसमयायां प्रथमे समयेऽनाहारकः। लाङ्गलिकायां द्विविग्रहायां त्रिसमयाया प्रथमद्वितीययोः समययोरनाहारकस्तृतीये आहारकः। गोमूत्रिकायां त्रिविग्रहायां चतुःसमयायां चतुर्थसमये आहारक इतरेष्वनाहारकः। ४.त. सू. भा. वृ.२/३१, (खं १) पृ. १८७-तत्र द्विविग्रहायामेक समय मध्यमं त्रिविग्रहायां द्वो समयावनाहरको मध्यमो भवति। ५. भ. जो. २/१११/१३-१७ त्रिण वक्र करि धार, च्यार समय करि उपजे। प्रथम चरम बे आर, समय मज्झिम वे आर नहि ॥ वृत्ति मझे इम वाय, अन्य आचार्य इम कहै। पंच समय उपजाय, सूत्रे कथन न इम कहयं ॥ अणाहारक नां जेड, समय जीन केई कहै।। पाठ मझे नहिं तेह, बुद्धिवंत न्याय विचारियै ॥ पन्नवण में तहतीक, अठारमा पद ने विषे। छद्मस्थ अणाहारीक, स्थिति कही बे समय नीं ॥ तिण सूं सूत्रे वाय, आखी तेहिज सत्य छै। विरूद्र बहु वृत्ति मांय, ते किण रीते मानिये॥ ६.(क) पण्ण, १८/६८/ (ख) जीवा. ६/४३। ७, (क) प्रज्ञा. वृ. प. ३१३-इह यद्यपि चतुःसामयिकी पञ्चसामयिकी च विग्रिहगतिभवति, आह च उजुया य एकवंका, दुहतो वंका गति विणिदिवा। जुज्जइ तिचउर्वकावि, नाम चउपंचसमयाओ ||१|| तथापि बाहुल्येन द्विसामयिकी त्रिसामयिकी वा प्रवर्तते न चतःसामयिकी पञ्चसामयिकी वा प्रवर्तते ततो न ते विवक्षिते, तत्रोत्कर्षतस्त्रिसामयिक्यां विग्रहगती ।। (ख) जीवा. वृ. प. ४४१-जघन्यत एक समयं जघन्याधिकाराद् द्विसामयिकी विग्रहगतिमपेक्ष्यैतदवसातव्यं, उत्कर्षतो द्वौ समया त्रिसामयिक्या एव विग्रहगते बर्बाहल्येणाश्रयणात. आह च चूर्णिकृत्-यद्यपि भगवत्यां चतुःसामयिकोऽनाहारक उक्तस्तथाप्यत्र नाङ्गीक्रियते, कदाचित्को ऽसौ भावो येन, बाहुल्यमेवाङ्गीक्रियते, बाहुल्याच्च समयद्वयमेवेति द्वावाधी समयावनाहारकः। Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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