________________
श.७ : उ.१ : सू.१
३२४
भगवई
योना।
में किया जाता है। प्रत्येक शरीरधारी प्राणी सयोग-अवस्था में निरन्तर आहार गति में दो समय लगते हैं। (चित्र ३) उत्पत्ति-स्थान उभयतः वक्र श्रेणी में होता लेता है। आहार का ग्रहण भोजन-काल में किया जाता है। उसके बिना जीवन-क्रिया है तो अन्तरालगति में तीन समय लगते हैं। (चित्र ४) अन्तरालगति चार समय का संचालन नहीं होता।
की भी होती है। (चित्र ५) अनाहारक होना आपवादिक अथवा विशेष स्थिति है। इसके दो १. जीव ऋजुगति से उत्पत्ति-स्थान तक जाता है तब वह परभवप्रसंग है-अन्तरालगति और केवली समुद्घात। जीव मृत्यु के पश्चात् भावी आयुष्य के प्रथम समय में आहारक होता है। विग्रहगति से उत्पत्ति के स्थान तक जन्मस्थल तक जाता है। दोनों के मध्यवर्ती गति का नाम अन्तरालगति है। जाने वाला जीव प्रथम समय में अनाहारक होता है। उक्त दोनों संदर्भो के प्रस्तुत सूत्र में आहारक और अनाहारक का प्रज्ञापन अन्तरालगति के संदर्भ में आधार पर यह सिद्धांत फलित होता है—प्रथम समय में स्यात् आहारक, किया गया है। अन्तरालगति दो प्रकार की होती है-ऋजु और वक्र। जो जीव स्यात् अनाहारक । ऋजु-आयत श्रेणी में उत्पन्न होता है, वह एक समय में उत्पत्ति-स्थान में चला २. कोई जीव दो समय और एक वक्र वाली विग्रह-गति से जाता है। (चित्र १, २) उत्पत्ति स्थान एकतः वक्रश्रेणी में होता है, तो अन्तराल उत्त्पत्ति-स्थान में जाता है, तब वह प्रथम समय में अनाहारक और द्वितीय
समय में आहारक होता है।
उत्पत्ति स्थान
उत्पत्ति स्थान
च्यवन स्थान
च्यवन स्थान
चित्र
चित्र
तृतीय
वक.
उत्पत्ति स्थान
उत्पत्ति स्थान
उत्पत्ति स्थान
द्वितीय वक्र
ATI T2
प्रथम वक्र
प्रथम वक्र
| T2 TI प्रथम वक्र द्वितीय वक्र
च्यवन स्थान
चित्र ३
चित्र ४
चित्र ५
१.त. सू. भा. व. २/३१-तत्रीजआहारोऽपर्याप्तकावस्थायां कार्मणशरीरेणाम्बुनिक्षिप्ततप्त- भाजनवत् पुद्गलादानं सर्वप्रदेशैर्यत् क्रियते जन्तुना प्रथमोत्पादकाले योनौ अपूपेनेव प्रथमकालप्रक्षिप्तेन घृतादेरिति, एष च आन्तर्मुहूर्तिकः। लोमाहारस्तु पर्याप्तकावस्थाप्रभृति यत्
त्वचा पुद्गलोपादानमाभवक्षयाच्च सः। प्रक्षेपाहारः ओदनादिकवलपानाभ्यवहारलक्षणः । २. भ. ३४/२,३,। ३. वही, ३४/१४ ।
Jain Education Intemational
For Private & Personal use only
www.jainelibrary.org