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________________ श.७ : उ.१ : सू. १०-१५ हंता भवइ । अहे णं से तुबे तेसिं अट्टन्हं महियालेवाणं परिक्खणं धरणितलमतिवइत्ता उप्पिं सलिलतलपट्टाणे भवइ ? हंता भवइ । एवं खलु गोयमा निस्संगवाए निरंगणयाए गतिपरिणामेणं अकम्मस्स गती पण्णायति ॥ १३. कहणं भंते! बंधणदणयाए अकम्पस्स गती पण्णायति ? गोयमा से जहानामए कलसिंबलिया वा मुग्गसिंबलिया इ वा माससिंवलिया इ वा सिंबलिसिंगलिया इवा, एरंडमिंजिया इवा उन्हें दिन्ना सुक्का सगाणी फुडित्ता नं एगत तं गच्छइ । एवं खलु गोयमा ! बंधणछेदणयाए अकम्मस्स गती पण्णायति ॥ गोयमा से जहानामए धूमस्स इंधनविण्य मुक्कस्स उड्ढं वीससाए निव्वाघाएणं गती पवत्तत्ति । एवं खलु गोयमा निरिंधणयाए अकम्मस्स गती पण्णायति ॥ १४. कण्णं भंते! निरिंधणयाए अकम्मस्स गती कवं भदन्त निरिन्धनतया अकर्मणः गतिः पण्णायति ? प्रज्ञायते ? गोयमा ! से जहानामए कंडस्स कोदंडविप्पमुक्कस्स लक्खामिमुही निव्वाघाएणं गती पवत्त एवं खलु गोयमा ! पुव्वप्यओगेणं अकम्मस्स गती पण्णायति । एवं खलु गोयमा निस्संगयाए, निरंगगयाए गतिपरिणामेणं, बंधणछेदणयाए, निरिंधण याए, पुब्वप्पओगेणं अकम्मस्स गती पण्णायति ॥ हन्त भवति । अधः सः तुम्बः तेषाम् अष्टानां मृत्तिकालेपानां परिक्षयेण धरणितलमतिपत्य उपरि सलिलतलप्रतिष्ठानः भवति ? हन्त भवति । एवं खलु गौतम! नितया निरङ्गतया गतिपरिणामेन अकर्मणः गतिः प्रजायते । १. भ. ७/१५६ । कथं भवन्त ! बन्धनछेदनतया अकर्मणः गति प्रज्ञायते ? गीतम। तद् यथानाम कलशिम्बलिका इति वा, मुद्गशिम्बलिका इति था, माषशिम्बलिका इति वा, शिम्बलिशिम्बलिका इति वा, एरण्डमिज्जिका इति था, उगे दत्ता, शुष्क सती स्फुटित्वा एकान्तमन्तं गच्छति । एवं खलु गौतम! बन्धनछेदनतया अकर्मणः गतिः प्रज्ञायते । Jain Education International ३३० ! । १५. कहण्णं भंते ! पुव्वप्पओगेणं अकम्मस्स कथं भदन्त ! पूर्व प्रयोगेण अकर्मणः गतिः गती पण्णायति ? प्रज्ञायते ? गौतम ! तद् यथानाम धूमस्य इन्धनविप्रमुक्तस्य ऊर्ध्वं विस्रसातः निर्व्याघातेन गतिः प्रवर्तते एवं खलु गौतम! निरिन्धनत्तया अकर्मणः गतिः प्रज्ञायते । गौतम ! तद् यथानाम काण्डस्य कोदण्डविप्रमुक्तस्व लक्ष्याभिमुखी निर्व्यापातेन गतिः प्रवर्तते। एवं खलु गीतम। पूर्वप्रयोगेण अकर्मणः गतिः प्रज्ञायते । १. सूत्र १०-१५ सांख्य दर्शन में आत्मा को सर्वव्यापी माना गया है। नैयायिक और वैशेषिक भी आत्मा को सर्वव्यापी मानते हैं। नैयायिक दर्शन के अनुसार आत्मा अणु परिमाण और मध्यम परिमाण वाला नहीं है। वह आकाश की तरह विभु है वेदान्त के अनुसार पारमार्थिक सत्ता एक ब्रह्म है और वह व्यापक है। एवं खलु गौत्तम निस्सङ्गतया निरणतया, गतिपरिणामेन, बंधनछेदनतया, निरिन्धनतया पूर्वप्रयोगेण अकर्मणः गतिः प्रज्ञायते । भाष्य भगवई For Private & Personal Use Only हाँ होता है। क्या वह तुम्बा मिट्टी के आठों लेपों के उतर जाने पर धरातल से ऊपर उठकर सलिल-तल पर प्रतिष्ठित होता है ? हाँ, होता है। गौतम ! इसी प्रकार निस्संगता, निरञ्जनता और गति - परिणाम- इन कारणों से अकर्म के गति होती है। १३. भन्ते ! बन्धन का छेद होने से अकर्म के गति कैसे होती है ? गौतम! जैसे कोई गोल चने की फली, मूंग की फली, उड़द की फली, शाल्मली की फली और एरण्ड फल धूप लगने पर सूख जाता है और उसके बीज प्रस्फुटित हो ऊपर की ओर उछल जाते हैं, गौतम! इसी प्रकार बन्धन का छेदन होने पर अकर्म के गति होती है। १४. भन्ते ! निरिन्धन होने के कारण अकर्म के गति कैसे होती है ? गौतम! जैसे इंधन से मुक्त धुएं की गति स्वभाव से ही किसी व्याघात के बिना ऊपर की ओर होती है। गोतम ! इसी प्रकार निरिन्धन होने के कारण अकर्म के गति होती है। १५. भन्ते ! पूर्व प्रयोग से अकर्म के गति कैसे होती है ? गीतम! जैसे कोई धनुष से छूटे हुए बाग की किसी व्याघात के बिना लक्ष्य की ओर गति होती है। गौतम! इस प्रकार पूर्व प्रयोग से अकर्म के गति होती है। गौतम ! इसी प्रकार निस्संगता, निरञ्जनता, गतिपरिणाम, बन्धन-छेदन, निरिन्धनता और पूर्व प्रयोग -इन कारणों से अकर्म के गति होती है। इसलिए इन दर्शनों में मुक्त आत्मा की गति के विषय में चिन्तन करने के लिए कोई अवकाश नहीं है। बौद्ध दर्शन में आत्मा अव्याकृत है। इसलिए वहाँ मुक्त आत्मा की गति का कोई प्रश्न ही नहीं है। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा शरीरव्यापी है।' मोक्ष लोक के अन्त भाग में है। आत्मा मनुष्यलोक में -लोक में मुक्त होती है और मुक्त होने के पश्चात् लोक के अन्त अथवा अग्र भाग तक जाकर www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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