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भगवई
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श.७ : उ.१ : सू.१०-१६
सिद्ध होती है। इस स्थिति में जैन दर्शन के सामने यह प्रश्न उपस्थित हुआ
४. पूर्व प्रयोग-आत्मा की गति काययोग द्वारा होती है। मुक्त होने गति का प्रेरक है शरीर। शरीर से मुक्त होने के पश्चात् आत्मा की गति कैसे हो के पूर्व चतुर्दश गुणस्थान में अयोग अवस्था आ जाती है, काययोग समाप्त हो सकती है? इस प्रश्न के समाधान में सूत्रकार ने चार हेतु प्रस्तुत किये हैं---१. जाता है। फिर भी उसकी प्रेरणा रहती है। उससे मुक्त आत्मा की ऊर्ध्वगति निस्संगता, निरंजनता, गति-परिणाम, २. बन्धन-छेदन, ३. निरिन्धनता, ४. होती है। पूर्व प्रयोग के लिए सूत्रकार ने धनुष से मुक्त बाण का दृष्टान्त दिया है। पूर्व प्रयोग।
तत्त्वार्थभाष्य तथा तत्त्वार्थराजवार्तिक में कुलालचक्र का दृष्टान्त दिया गया १.निस्संगता-निस्संगता, निरंजनता और गति-परिणाम को तुम्बे है। जैसे पुरुष के प्रयत्न से कुलालचक्र चालित हो गया। पुरुष का प्रयत्न बंद के दृष्टांत द्वारा समझाया गया है। सूखा तुम्बा मिट्टी के संग से नीचे जल के तल हो जाने पर भी वह पूर्व प्रयोग कुछ समय तक घूमता रहता है, वैसे ही पूर्व प्रयोग में चला जाता है। संगमुक्त होने पर वह जल के ऊपर आ जाता है। इसी प्रकार से मुक्त आत्मा की गति होती है। कर्म के संग से मुक्त होने पर जीव लोक के अग्रभाग तक चला जाता है।
उमारवाति ने मुक्त आत्मा की ऊर्ध्वगति के चार हेतुओं का उल्लेख शब्द-विमर्श किया है। उनमें चौथा हेतु 'तथागतिपरिणाम' है। भाष्यकार ने एक सार्वभौम
अकर्म-कर्ममुक्त नियम का निर्देश किया है-गतिमान् द्रव्य दो हैं-पुद्गल और जीव। पुद्गल
निस्संगता-असंग, निर्लेप की स्वाभाविक गति नीचे की ओर होती है। आत्मा की स्वाभाविक गति ऊपर
निरञ्जन-मल-रहित, राग-रहित अथवा रंग-रहित" 'संखे इव की ओर होती है। कर्म-युक्त आत्मा नीची, तिरछी अथवा ऊँची गति करती हैं।
निरंगणे'-इस उपमा का मुनि के लिए अनेक आगमों में प्रयोग हुआ है। कर्ममुक्त आत्मा की केवल ऊर्ध्वगति होती है। इसलिए गति-परिणाम यह मुक्त
आगमों में निरङ्गण और निरञ्जन दोनों पदों का प्रयोग मिलता है। मूल शब्द आत्मा की ऊर्ध्वगति का मुख्य हेतु है।
'निरंजण' है। जकार को गकार का वर्णादेश करने पर 'निरङ्गण' रूप बनता है। २. बन्धन-छेदन-कर्म के कारण से आत्मा की नीची, तिरछी या
परिकर्म-संस्कार ऊर्ध्व गति होती है। बंधन के टूटने पर उसकी गति ऊपर की ओर हो जाती है।
प्रभूत (भूतिं भूति)-बहुत अधिक। वृत्तिकार ने इसका अर्थ सूत्रकार ने इसके लिए फली और एरण्ड फल के दृष्टान्त का प्रयोग किया है।
___ 'भूयो भूयः'-बार-बार किया है। तत्त्वार्थ भाष्य में 'पेटा' (पेटी) का दृष्टान्त भी प्रयुक्त है।
पुरुष से अधिक प्रमाण वाला (अपोरिसिय) पुरुष-ऊचाई या . ३. निरिन्धनता-निरिन्धनता के लिए धूम का दृष्टान्त प्रस्तुत है।
गहराई का एक प्राचीन माप जो पुरुष या १२० अंगुल के बराबर होता था। तत्त्वार्थसूत्र में निरिन्धनता का उल्लेख नहीं है। इसकी तुलना 'तथागतिपरिणाम' ।
एरण्ड-फल (एरंडमिंजिया)-मिंजा का अर्थ है-हाड के बीच का से की जा सकती है। सर्वार्थसिद्धि तथा तत्त्वार्थराजवार्तिक में 'तथागति
अवयव विशेष। मिंजिया का अर्थ है-मध्यवर्ती अवयव। इस आधार पर परिणाम' के लिए अग्निशिखा का दृष्टान्त दिया गया है। जैसे प्रदीपशिखा
एरंडमिंजिया का अर्थ एरण्ड फल किया गया है। एरंड का फल पकने पर धूप स्वभाव से ऊपर की ओर जाती है, वैसे ही मुक्त आत्मा भी स्वभाव से ऊपर की
की गर्मी से फट जाता है और बीज ऊपर की ओर उछल जाते हैं।" ओर जाती है। प्रस्तुत आगम में धूम का दृष्टान्त है।
इन्धन-रहित-निरिन्धन ।
दुक्खिस्स दुक्खफासादि-पदं
दुःखिनः दुःखस्पर्शादि-पदम् दुःखी के दुःखस्पर्श आदि का पद १६. दुक्खी भंते! दुक्खेणं फुडे? अदुक्खी दुक्खेणं दुःखी भदन्त! दुःखेन स्पृष्टः? अदुःखी दुःखेन १६.' भन्ते ! दुःखी व्यक्ति दुःख से स्पृष्ट होता है ? स्पृष्टः?
अथवा अदुःखी दुःख से स्पृष्ट होता है? गोयमा ! दुक्खी दुक्खेणं फुडे, नो अदुक्खी गौतम ! दुःखी दुःखेन स्पृष्टः, नो अदुःखी गौतम ! दुःखी दुःख से स्पृष्ट होता है, अदुःखी दुःख दुक्खेणं फुडे ॥ दुःखेन स्पृष्टः।
से स्पृष्ट नहीं होता।
१. उत्तर.३६/५६
अलोए पडिहया सिद्धा लोयग्गे य पइट्ठिया।
इहं बोदि चइत्ताणं तत्थ गंतूण सिज्झई ॥ २.त. सू-१०/६ पूर्व प्रयोगाद्, असंगत्वाद, बन्धच्छेदात् तथा गतिपरिणामाच्च तद्गतिः॥ ३. त. सू. भा. वृ. १०/६-पुद्गलानां जीवानां च गतिमत्त्वमुक्तं, नान्येषां द्रव्याणाम् । तत्राधो गौरवधर्माणः पुद्गलाः ऊर्ध्व गौरवधर्माणो जीवाः । एष स्वभावः। ४. वही, १०/६–बन्धच्छेदात्। यथा रज्जुबन्धच्छेदात् पेडाया बीजकोशबन्धनच्छेदाच्चैरण्ड बीजादीनां गतिर्दृष्टा तथा कर्मबन्धनच्छेदात् सिध्यमानगतिः। ५. स. सि. १०/६, ७, त. रा. बा. १०/६, ७–पूर्वप्रयोगादसङ्गत्वाद् बन्धच्छेदात्तथागति- परिणामाच्च॥६॥
आविद्धकुलालचक्रवद् व्यपगतलेपालाबूवदेरण्डबीजवदग्निशिखावच्च ॥७॥ ६.(क) त. भा. १०/६।
(ख) त. रा. वा. १०/७। ७.स्था. वृ. प. ४४०-'संखे इव निरङ्गणे ' रङ्गणं-रागाद्युपरञ्जनं तस्मान्निर्गत इत्यर्थः । ८. नाया. १/५/३५-संखो इव निरङ्गणे। पण्हा. १०/११-संखेविव निरंगणे।
ओवा. २७, राय. /३-संखे इव निरंगणे। दसाओ /७५-संखो इव निरंजणे। जंबु. २/६८-संखमिव निरंजणे।
सूय. २/२/६४-संखो इव निरंजणा। ६. भ. वृ.७/१२–'भूई भूइन्ति भूयो भूयः । १०.पा. स. म.-मिंज, मिजिया, एरंडमिजिया। ११ जै. आ. व. को-एरंड।
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