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________________ श.३ उ.२ सू.११२ देवगईए तिरियमसंखेज्जाणं दीवसमुद्दाणं मज्मोन वीईक्यमाने चीयमाणे जेणेव सोहम्मे कप्पे, जेणेव सोहम्मवडेंसए विमाणे, जेणेव सभा सुम्मा तेणेव उवागच्छ एवं पायं पउमवरवेश्याए करेइ, एगं पायं सभाए सुहम्मा करेइ, फलिहरयणेणं महया - महया सद्देणं तिक्खुत्ती इंदकील आउछेद, आउटेसा एवं वयासी कहि गं भो! सक्के देविंदे देवराया? कहि णं ताओ चउरासीइसामाणियसाहस्सीओ ? कहि णं ते तायत्तीसयताबत्तीसगा? कहि नं ते चत्तारि लोगपाला? कहि णं ताओ अट्ठ अग्गमहिसीओ सपरिवा - राओ? कहि णं ताओ तिष्णि परिसाओ ? कहि ते सत्त अणिया ? कहि णं ते सत्त अणियाहिवई ? कहि णं ताओ चत्तारि चउरासीईओ आयरक्खदेवसाहस्सीओ ? कहि णं ताओ अगाओ अच्छराकोटीओ ? अज्ज हणामि, अज्ज महेमि, अज्ज वहेमि, अज्ज ममं अवसाओ अच्छराओ वसमुवणमंतु त्ति कट्टु तं अणि अकंतं अप्पियं असुभं अमणुण्णं अमणामं फरुसं गिरं निसिरइ ॥ ५२ या उद्भुतया दिव्यया देवगत्या तिर्यग् असंख्येयानां द्वीप समुद्राणां मध्येमध्येन व्यति व्रजन् व्यतिव्रजन् यत्रैव सौधर्मः कल्पः, यत्रैव सौधर्मावतंसकः विमानः, यत्रेव सभा सुधर्मा तत्रैव उपागच्छति, एकं पादं पद्मवरवेदिकायां करोति, एकं पादं सभायां सुधर्मायां करोति, परिधरलेन महता महता शब्देन त्रिकृत्वः इन्द्रकीलं आकुटति आफुट्प एवं वदति“कुत्र भोः ! शक्रः देवेन्द्रः देवराजः ? कुत्र सा चतुरशीतिसामानिकसाहस्री ? कुत्र ते त्रयस्त्रिशत्तावलिकाः? कुत्र ते चत्वारः लोकपालाः ? कुत्र ताः अष्ट अग्रमहिष्यः सपरिवाराः ? कुत्र ताः तिस्रः परिषदः ? कुत्र तानि सप्त अनीकानि ? कुत्र ते सप्त अनीकाधिपतयः ? कुत्र ताः चतस्रः चतुरशीतिः आत्मरक्षदेवसाहस्री ? कुत्र ताः अनेकाः अप्सरस्कोटयः ? अद्य हन्मि अद्य मध्यामि अद्य व्यथयामि अद्य मम अवशाः अप्सरसः वशमुपनमन्तु,” इति कृत्वा ताम् अनिष्टाम् अकान्ताम्, अप्रियाम् अशुभाम् अमनोज्ञाम् 'अमणामं' परुषां गिरं निसृजति । भाष्य १. परिघरल आप्टे की संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी में 'परिघ' का अर्थ "An iron club in general" किया गया है। Club के शस्त्र-संबंधी निम्न अर्थ कोश में प्राप्त है गदा, मुद्गर, डण्डा, लाठी | २. तिगिंछिकूट उत्पातपर्वत चमर के उत्पात - पर्वत का वर्णन भ. २/ ११८ में आ चुका है। ठाणं में चमर आदि के अनेक उत्पात - पर्वतों का उल्लेख है।' ३. उत्तरवैक्रिय रूप वैमानिक आदि देव जब मनुष्य-लोक में आते हैं, तब मुनष्य-लोक के अनुरूप नए शरीर का निर्माण करते हैं। देवों के दो प्रकार का शरीर होता Jain Education International १. ठाणं, १०/४७-६१। २. भ. वृ. ३ / ११२ - पूर्ववैक्रियापेक्षयोत्तराणि - उत्तरकालभाविनि वैक्रियाणि उत्तरवैक्रियाणि । ३. (क) भ. ६/१६५। (ख) भ. वृ. ६ / १६५ - तत्र च स्वस्थान एव प्रायो विकुर्वन्ते यतः कृत्तोत्तरवैक्रियरूप एव है — भवधारणीय और उत्तरवेकिय वैवेयक और अनुत्तर विमान के देव उत्तरवेक्रिय नहीं करते, इसलिए उनके केवल भवधारणीय शरीर होता है। शेष देवों के भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय दोनों प्रकार का शरीर होता है। देवों और नारकीय जीवों के भवधारणीय शरीर को पूर्ववैक्रिय शरीर कहा जा सकता है। उनके नए शरीर का निर्माण होता है, वह उस शरीर की अपेक्षा उत्तरवैक्रिय शरीर कहलाता है। अभयदेवसूरि ने उत्तरवेकिय का अर्थ उत्तरकाल में होने वाला शरीर किया है। देव अपने भवधारणीय शरीर से प्रायः अन्यत्र नहीं जाते। भगवई करता हुआ, ज्योतिष्क देवों को दो भागों में विभक्त करता हुआ - विभक्त करता हुआ, आत्मरक्षक देवों में भगाता हुआ भगाता हुआ, परिघरत्न को आकाश घुमाता हुआ घुमाता हुआ, तिरस्कार करता हुआ - तिरस्कार करता हुआ उस उत्कृष्ट, त्वरित, चपल, चण्ड, जयिनी, छेक, रोटी, शीघ्र उद्धत और दिव्य देवगति से तिरछे लोक में असंख्य द्वीप- समुद्रों मध्यभाग से गुजरता - गुजरता जहां सौधर्म कल्प है, जहां सौधर्मावतंसक विमान है, जहां सुधर्मा सभा है वहां आता है। वहां वह अपने एक पांव को पदमवरवेदिका पर रखता है, एक पांव सुधर्मा सभा में रखता है और ऊंचा ऊंचा शब्द करता हुआ परिघरत्न से तीन बार इन्द्रकील पर प्रहार करता है। प्रहार कर इस प्रकार बोला- “कहां है वह देवेन्द्र देवराज शक्र ? कहां हैं वे चौरासी हजार सामानिक देव? कहां है वे तेतीस तावत्त्रिंशक देव? कहां हैं वे चार लोकपाल? कहां हैं वे सपरिवार आठ पटरानियां? कहां हैं वे तीन परिषदे? कहां है वे स्वत सेनाएं? कहां हैं वे सात सेनापति ? कहां हैं वे तीन लाख छत्तीस हजार आत्मरक्षक देव? कहां हैं वे करोड़ों अप्सराएं? आज मैं उनको मारता हूं, मथता हूं, व्यथित करता हूं, अब तक जो अप्सराएं मेरे वश में नहीं थीं वे अब मेरे वश में हो जाएं," ऐसा कर वह उस अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय अशुभ, अमनोज्ञ मन को न भाने वाली, कठोर वाणी का प्रयोग करता है। , वे उत्तरवैक्रिय शरीर का अपने स्थान में ही निर्माण कर लेते हैं, फिर कहीं अन्यत्र जाते हैं। ४. भयानक भयाणीय भयानीत का प्राकृतीकरण है। वृत्तिकार ने इसके दो प्रायो ऽन्यत्र गच्छतीति नो इहगतान् पुद्गलान् पर्यादाय इत्याद्युक्तमिति । ४. भ. वृ. ३/११२ – 'भयाणीयं' त्ति भयमानीतं यया सा भयानीता ऽतस्ताम्, अथवा भयं भवत्पावनी परिवार सेवा भवानीका स्त For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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