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भगवई
संस्कृत रूप दिए हैं- भवानीत, भयानीक। *
५. पैरों से भूमि पर प्रहार करता है
इसका तात्पर्य है कभी आगे की ओर हाथों को उछालता है और कभी पीछे की ओर उछालता है। दद्दरग देशी शब्द हैं। इसका अर्थ हैआस्फोटन, आघात, प्रहार।"
६. कभी आगे की ओर चपेटा मारता है, कभी पीछे की ओर
उच्छोले, पच्छोलेइये दोनों देशी क्रियापद है वृत्तिकार ने इनका अर्थ - 'आगे से चपेटा का प्रहार करना, पीछे से चपेटा का प्रहार करना' किया है। रायपसेणइयं में 'उच्छलेति पोच्छलेंति' पाठ मिलता है। इनका अर्थ है – 'उछलकूद करना।' यह पाठ स्वाभाविक लगता है। प्रस्तुत पाठ ‘उच्छोलेइ पच्छोलेइ' में वर्ण-परिवर्तन हुआ प्रतीत होता है।
७. त्रिपदी का छेद करता है
वृत्तिकार ने बतलाया है जैसे मल्ल रंगभूमि में त्रिपदी का छेद करता है, वैसे ही चमर त्रिपदी का छेद कर रहा है। * वृत्ति की व्याख्या से
सक्केंदस्स कज्जपक्स्त्रैव-पदं
११३. तए गं से सक्के देविदे देवराया तं अणि अणिट्ठ अनंतं अणियं असुभं अमनुष्णं अगणानं अस्सुयपुव्वं फरुसं गिरं सोच्चा निसम्म आसुकत्ते रुट्टे कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमागे तिवलिगं भिउडिं निडाले साहटट्टु चमरं असुरिंदं असुररायं एवं वदासिहं भो ! चमरा! असुरिंदा! असुरराया! अपत्थिय पत्थया! दुरंतपंतलक्खणा ! हिरिसिरिपरि वज्जिया! हीणपुण्णचाउद्दसा! अन्न न भवसि नाहि ते सुहमत्थीति कट्टु तत्थेव सीहासनवरगए वज्जं परामुसद्द परामुखित्ता तं जलतं फुडंतं तडतडत उक्कासहरसाई विणिम्मुयमाणं- विणिम्मुयमाणं, जालासहस्साई पहुंचमाणं पहुंचमाणं, इंगालसहस्साई पविक्खिरमाणं विवित्वरमाणं, फुलिंगनाला मालासहस्सेहिं चक्खुविक्खेवदिट्ठपडिघातं पि पकरेमाणं हुयवहअइरेगतेयदिप्पंतं जइणवेगं फुल्लकिंसुयसमाणं महब्भयं भयंकरं चमरस्स असुरिंदरस असुरण्णो वहाए वज्जं निसिरई ॥
१. वही, ३/११२ - 'पायदद्दरगं 'ति भूमेः पादेनास्फोटनम् । द्रष्टव्य, देशीशब्दकोश 'दद्दरग' शब्द ।
२ वही, ३/११२ 'उच्छोलेइ 'त्ति अग्रतोमुखां चपेटां ददाति, 'पच्छोलेइ' ति पृष्ठतोमुखां चपेटां ददाति ।
३. राय सू. २८१।
४. भ. वृ. ३/११२ - मल्ल इव रङ्गभूमी त्रिपदीच्छेदं करोति ।
५. वही, ३/११२ - ' अप्फोडइ त्ति करास्फोट करोति ।
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श. ३ : उ. २ : सू. ११२, ११३
त्रिपदी - छेद का अर्थ 'मल्ल कुश्ती का एक दांव' फलित होता है। कुश्ती के समय गर्दन पर कोई कपड़ा बांध लेते हैं; उसे फाड़ देना या सरका देना त्रिपदीछेद कहलाता है। पाइयसद्दमहण्णव के अनुसार त्रिपदी का अर्थ है 'भूमि में तीन
बार पांव का न्यास' ।
शब्द-विमर्श
अप्फोडेइ-करास्फोट करना। तात्पर्य है - हाथों को आकाश में
उछालना ।
अमा की अर्धरात्रि (कालरत ) - श्रीमज्जाचार्य ने इसका अर्थ 'अमावस्या की अर्धरात्रि' किया है।
विडंबई विकृत करता है। "
विउगाएमाणे इसका संस्कृत रूप 'व्यपभ्राजमानः' है। वृत्तिकार ने इसके संस्कृत रूप व्युद्भ्राजमानः, विजृम्भमाणः, व्युद्भाजयन् किए हैं। इन्द्रकीलं -- वृत्तिकार ने इसका अर्थ गोपुर के दोनों कपाटों के सन्धि-स्थान पर लगाई जाने वाली कील किया है। ' चमर ने तीन बार इन्द्रकील पर प्रहार किया। इन्द्रकील का एक अर्थ 'इन्द्र का झण्डा' भी है।" यह अर्थ भी संगत हो सकता है।
शक्रेन्द्रस्य वज्रप्रक्षेप-पदम्
ततः सः देवेन्द्रः देवराजः तां अनिष्टाम् शक्रः असन्ताम् अप्रियाम् अशुभाम् अमनोज्ञाम् 'अमणामम्' अश्रुतपूर्वा परुषा गिरं श्रुत्वा निशम्य आशुरूतः रुष्टः कुपितः चाण्डविक्वतः मिसिमिसिमानः त्रिवलिकां भृकुटिं ललाटे संहृत्य चमरं असुरेन्द्रं असुरराजं एवमवादीत् भोः चमर! असुरेन्द्र! असुरराज! अप्रार्थितप्रार्थिक! दुरन्तप्रान्तलक्षण! ही श्रीपरिवर्जित! हीनपुष्पचातुर्दश! अद्य न भवसि न हि ते सुखमस्तीति कृत्वा तत्रैव सिंहासनवरगतः कनं परामृशति परामृश्य तं ज्वलन्तं स्फुटन्तं ततायन्तं उत्कासहस्राणि विनि मुञ्चन्तं विनिर्मुञ्चन्तम्, ज्वालासहस्राणि प्रभुज्वन्तं प्रमुञ्चन्तम्, अंगारसहस्राणि प्रवि किरन्तं प्रविकिरन्तं स्फुलिङ्गज्यालामालासहस्रचक्षुर्विक्षेपदृष्टिप्रतिघातमपि प्रकुर्वन्तं हुतवहातिरेकतेजोदीप्यमानं जविनवेगं फुल्लकिंशुकसमानं महाभयं भयंकरं चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरराजस्य वधाय व निसृजति ।
शक्रेन्द्र द्वारा वज्र-प्रक्षेप-पद
११३. ' वह देवेन्द्र देवराज शक्र उस अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ मन को न भाने वाली, अश्रुतपूर्व, कठोर वाणी को सुन कर, अवधारण कर तत्काल आवेश में आ गया, रुष्ट हो गया, कुपित हो गया, उसका रूप रौद्र बन गया, वह क्रोध की अग्नि से प्रदीप्त हो उठा। ललाट पर तीन रेखाओं वाली भृकुटि को चढ़ा कर असुरेन्द्र असुरराज चमर से इस प्रकार बोला- हे अप्रार्थनीय को चाहने वाले ! दुःखद अंत और अपनो लक्षण वाले! लज्जा और शोभा से रहित! हीनपुण्य चतुर्दशी को जन्मे हुए! असुरेन्द्र! असुरराज! चमर! आज तू नहीं बचेगा, अब तुम्हें सुख नहीं होगा, ऐसा कह कर वहीं सिंहासन पर बैठे-बैठे वज्र को हाथ में लेता है। वह जाज्वल्यमान विस्फोटक, गड़गड़ाहट करता हुआ हजारों उल्काओं को छोड़ता हुआ, हजारों ज्वालाओं का प्रमोचन करता हुआ, हजारों अंगारों को बिखेरता हुआ, हजारों स्फुलिंगों और ज्वालाओं की माला से चक्षु-विक्षेप और दृष्टि का प्रतिपात करता हुआ, अग्नि से भी अतिरिक्त तेज से दीप्यमान, अतिशय
६. भ. जो. १/५८/५०
७. भ. वृ. ३ / ११२ - विडंबेइ' त्ति विकृतं करोति ।
८. वही, ३ / ११२ -- विउज्झाएमाणे 'त्ति व्युद्भ्राजमानः - शोभमानो विजृम्भमाणो वा
व्युद्भाजयन् वाऽम्बरतले परिघरत्नमिति योगः ।
६. वही, ३/११२ – 'इंदकील त्ति गोपुरकपाटयुगसन्धिनिवेशस्थानम्।
१०. आप्टे इन्द्रकील - The banner of Indra
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