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श.३ : उ.२ : सू.११३-११४
१. सूत्र ११३
शब्द-विमर्श
चक्षुविक्षेप - चक्षु का भ्रम । ' दृष्टिप्रतिपात दर्शन का अवरोध।"
जइणवेग-वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'दूसरे वेगों को जीतने वाला
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चमरस्स भगवओ सरण-पदं
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११४. तए गं से चमरे असुरिंदे असुरराया वं जतं जाव भयंकरं वज्जमभिमुहं आवयमाणं पास, पासिता झिया पिहाड़, पिहाड़ शिवाई, झियायित्ता पिहाड़ता तहेव संभग्गमउडविडवे सालंवहत्याभरणे उपाए अहोसिरे कक्षानयसेयं पिव विगम्यमाणे विनिम्मुयमाणे चाए उक्विट्टाए जान तिरियमसंखेज्जाणं दीव समुद्दानं ममशेषणं वीईवयमाणे बीईय माणे जेणेव जंबूदीवे दीवे जाव जेणेव असोगवरपायवे जेणेव मम अंतिए तेणेव उवागच्छद् उवागच्छित्ता भीए भयगग्गरसरे 'भंगवं सरणं' इति दुयमाणे ममं दोन्ह वि पायाणं अंतरंसि झत्ति वेगेणं सगोवडिए ।
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१. भ. वृ. ३/११३ – चक्षुर्विक्षेपश्च- चक्षुर्भ्रमः ।
२. वही, ३/ ११३ - दृष्टिप्रतिघातश्च - दर्शनाभावः ।
भाष्य
१. चिन्तन में..... मूंद लेता है
वृत्तिकार ने झियाइ का अर्थ 'चिन्तन करता है' तथा पिहाइ का अर्थ 'स्पृहा करता है' किया है। स्पृहा के दो विषय बतलाए हैं - ऐसा शस्त्र मेरे पास भी हो उसकी अभिलाषा अथवा में सुखपूर्वक अपने स्थान पर बला जाऊं उसकी अभिलाषा पिहाड़ का वैकल्पिक अर्थ 'निमीलन-आंख मूंदना'
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चमरस्य भगवतः शरण-पदम्
ततः सः चमरः असुरेन्द्र असुरराजः तं ज्वतं यावत् भयंकर अभिमुखम् आपतन्तं पश्यति दृष्ट्वा ध्यायति पिदधाति पिदधाति ध्यायति ध्यात्वा विधाय तथैव संभग्नमुकुटविटपः सालम्बहस्ताभरणः ऊर्ध्वपादः अधःशिराः कक्षागतस्येदमिव विनिर्मुज्यन्-विनि मुञ्चन् तथा उत्कृष्टया यावत् तियंग असंख्ये यानां द्वीप समुद्राणां मध्येमध्येन व्यतिव्रजन्व्यक्तिव्रजन वर्जव जम्बूद्वीपः द्वीपः पाद यत्रैव अशोकवरपादपः वचैव मम अन्तिकं तत्रेय यत्रैव उपागच्छति, उपागम्य भीतः भयगद्गद्स्वरः 'भगवन् शरणम्' इति ब्रुवन् मम द्वयोरपि पादयोः अन्तः झगिति वेगेन समवपतितः ।
पूर्वक ध्यै धातु का अर्थ देखना होता है—निध्यानमवलोकनम् चमर वज्र की ओर देखता है और आंख मूंद लेता है। फिर आंख मूंदता है ओर खोलता
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भाष्य है।
३. वही, ३/११३ – 'जइणवेगं त्ति जयी शेषवेगवुद्वेगजयी वेगो यस्य तत्तथा ।
४. वही, ३ / ११४ - झियाइ' त्ति 'ध्यायति' किमेतत् ? इति चिनतयति, तथा 'पिहाइ' ति 'स्पृहयति' यद्येवंविधं प्रहरणं ममापि स्यादित्येवं तदभिलषति स्वस्थानगमनं वाऽभिलषति,
वेग' किया है। वृत्तिकार का यह अर्थ विमर्शनीय है। गति के वर्णन में एक विशेषण है 'जइणाए'। इसका संबंध 'जव' शब्द से है। यहां भी 'जइण' का संबंध जव से है। जइणवेग का अर्थ है अतिवेग वाला।
फुल्लकिंसुयसमाणं - किंशुक के पुष्प गहरे लाल रंग के होते हैं, किंशुक का वर्ण दूर से आग जलने की सी भ्रांति पैदा करता है।
शब्द-विमर्श
भी किया है। इन दो क्रियाओं के द्वारा चमर की मानसिक व्याकुलता परिलक्षित होती है।' झियाइ का एक अर्थ 'देखना' भी किया जा सकता है। 'नि' उपसर्ग उसके हाथ के आभरण नीचे झुलने लग गए।
भगवई
वेग वाला, विकसित किंशुक ( टेसू) पुष्प के समान रक्त, महाभय उत्पन्न करने वाला, भयंकर वज्र हाथ में उठा शक्र ने असुरेन्द्र असुर - राज चमर का वध करने के लिए उसका प्रक्षेपण किया।
चमर द्वारा भगवान् की शरण का पद
११४. वह असुरेन्द्र असुरराज चमर उस जाज्वल्यमान यावत् भयंकर यज्ञ को सामने आते हुए देखता है, देखकर चिन्तन में डूब जाता है, चिन्तन करते-करते आंखे मूंद लेता है। कुछ क्षणों बाद आंखे खोल फिर मूंद लेता है। आंखें मूंदे - मूंदे चिन्तन में डूब जाता है। इस व्याकुलता के क्षण में उसके मुकुट का विस्तार हो गया, उसके हाथ के आभरण नीचे लटक गए। पांव ऊपर और सिर नीचे किए हुए वह मानो काँख में से स्वेद-बूंदों को टपकाला हुआ उस उत्कृष्ट यावत् देवगति से तिरछे लोक में असंख्य द्वीप - समुद्रों के बीचो-बीच गुजरता हुआ जहां जम्बूद्वीप द्वीप है यावत् जहां प्रवर अशोकवृक्ष है, जहां मेरा पार्श्व है, यहां आता है आ कर भयभीत बना हुआ भय से घहराते हुए स्वर में बोला- 'भगवन्! आप शरण हैं' ऐसा कहता हुआ मेरे दोनों पांव के अन्तराल में शीघ्र ही अतिवेग से गिर गया।
तहेव - चिन्तन के क्षण में ।
मउडविडबे – मुकुट - विटप - मुकुट का विस्तार । सालंबहत्थाभरणे – चमर शीर्षासन की मुद्रा में दौड़ रहा है, इसलिए
कक्खागवसेयं पिव-देवों का शरीर शरीर है। उसमें पसीना नहीं होता। इसलिए 'इव' का प्रयोग किया गया है।"
अथवा 'पिहाइ' त्ति अक्षिणी पिधत्ते - निमीलयति 'पिहाइ झियाइ' त्ति पूर्वोक्तमेव क्रियाद्वयं व्यत्ययेन करोति, अनेन च पतितोता।
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५. अभि. चि. ३ / २४१ ।
६. भ. वृ. ३/११४ - ' तहेव'त्ति यथा ध्यातवांस्तथैव तत्क्षण एवेत्यर्थः ।
७. वही, ३/११४ - 'कक्खागयसेयं पिव' त्ति भयातिरेकात्कक्षागतं स्वेदमिव मुञ्चयन्, देवानां
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