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भगवई
सक्करस वज्ज -पडिसाहरण-पदं
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११५. तए णं तस्स सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकष्ये समुप्यज्जित्था – नो खलु पभू चमरे असुरिंदे असुरराया, नो खलु समत्वे चमरे असुरिंदे असुरराया, नो खलु विसए चमरस्स असुरिंदरस असुररण्णो अप्पणो निस्साए उड्ड उपइत्ता जाव सोहम्मो कप्पो नष्णत्थ अरहंते वा, अरहंतचेइयाणि वा अणगारे वा भाविअप्पाणो नीसाए उड्ढं उप्पयइ जाव सोहम्मो कप्पो, तं महादुक्खं धतु तहासवाणं अरहंताणं भगवंताणं अणगाराण य अच्चासायणाए ति कट्टु जहिं पतंज, मम ओहिणा आभोएइ, आभोएत्ता हा! हा! अहो! हतो अहमंसि ति कट्टु ताए उनिकद्वाए जाव दिव्याए देवगईए वज्जस्स वीहिं अनुगच्छ माणे-अणुगच्छमाणे तिरियमसंखेज्जाणं दीव - समुदाणं मम जाव जेणेव असोगवर पायवे, जेणेव ममं अंतिए तेणेव उपागच्छद्द, उवागच्छित्ता ममं चउरंगुलमसंपत्तं वज्जं पडिसाहरइ, अवियाइं मे गोयमा! मुट्ठिवाएणं सगे वीथा ॥
११६. तए णं से सक्के देविंदे देवराया वज्जं पडिसाहरिता ममं तिक्खुत्तो आवाहिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता बंद नस, वंदिता नमसत्ता एवं क्यासी एवं खलु भंते! अहं तुब्भं नीसाए चमरेणं असुरिंदेणं असुररण्णा सयमेव अच्चसाइए। तए णं मए परिकुविएणं समाणेणं चमरस्स असुरिंदस्स असुररण्णो वहाए वज्जे निसट्टे । तए णं ममं इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था - नो खलु पभू चमरे असुरिंदे असुरराया, नो खलु समत्वे चमरे असुरिंदे असुरराया, नो खलु विसए चमरस्स असुरिं दस्स असुररष्णो अप्पणी निस्साए उड्ड उप्परता जाव सोहम्मो को नष्णत्य अरहंते वा, अरहंतचेइयाणि वा, अणगारे वा भावि अप्पाणो नीसाए उड्ढं उप्पयइ जाव सोहम्मो कप्पो, तं महादुक्खं खलु तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं अणगाराण य अच्चासायणाए ति कट्टु ओहि पउंजामि, देवाणु
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किल स्वेदो न भवतीति संदर्शनार्थः पिवशब्दः ।
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शक्रस्य वज्र प्रतिसंहरण-पदम्
ततः तस्य शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य अयमेतद्रूपः आध्यात्मिक चिन्तितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुदयादि न खलु प्रभुः चमरः असुरेन्द्र असुराजः, नो खलु समर्थः चमरः असुरेन्द्रः असुरराजः, नो खलु विषयः चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरराजस्य आत्मनः नित्रया ऊर्ध्वम् उत्पतितुं यावत् सौधर्मः कल्पः, नान्यत्र अर्हतो वा अहंच्चैत्यानि वा अनगारान् वा भावितात्मनः निश्रित्य ऊर्ध्वम् उत्पतति यावत् सौधर्मः कल्पः तन् महादुःखं खतु तथारूपाणाम् अर्हतां भगवताम् अनगाराणां च अत्याशा नया इति कृत्वा अवधि प्रयुनक्ति माम् अवधिना आभोगयति, आभोग्य हा! हा! अहो ! हतः अहमस्मि इति कृत्वा तया उत्कृष्टया यावद् दिव्यया देवगल्या वनस्य वीथिम् अनुगद्यान्- अनुगच्छन् तिर्यग् असंख्येयानां द्वीप-समुद्राणां मध्येमध्येन यावद् पत्रेय अशोकवरपादपः यत्रैव मम अन्तिकं तचैव उपागच्छति, उपागत्य मम चतुरङ्गलमसंप्राप्तं वज्रं प्रति संहरति, अपि च मम गौतम! मुष्टिवातेन केशाग्रान् अवीविजत् ।
ततः सः शक्रः देवेन्द्रः देवराजः वज्रं प्रतिसंहत्य मम त्रिकृत्वः आदक्षिण-प्रदक्षिणां करोति कृत् बन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्थित्वा एवं अवादीद् एवं खलु भदन्त अहं त्वां निश्रित्य चमरेण असुरेन्द्रेण असुरराजेन स्वयमेव अत्याशातितः । ततः मया परिकुपितेन सता चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरराजस्य वधाय वज्रं निःसृष्टम् । ततः मम अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः चिन्तितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुदपादि - नो खलु प्रभुः चमरः असुरेन्द्रः असुरराजः, नो खलु समर्थः चमरः असुरेन्द्रः असुरराज, नोख विषयः चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरराजस्य आत्मनः निश्रया ऊर्ध्वम् उत्पति यावत् सौधर्मः कल्पः नान्यत्र अर्हतो वा, अर्हच्चैत्यानि वा, अनगारान् वा, भावितात्मनः निश्रित्य ऊर्ध्वम् उत्पतति यावत् सौधर्मः कल्पः तन् महादुःखं खतु तथारूपाणाम् अर्हतां भगवताम् अनगाराणां च अत्याशातनया इति कृत्वा अवधिं प्रयुज्म, देवानुप्रियम्
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श.३ उ. २ सू. ११५, ११६
शक्र का वज्र - प्रतिसंहरण-पद
११५. उस देवेन्द्र देवराज शक्र के यह इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मूल्यात्मक, अभिलाषात्मक मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ - असुरेन्द्र असुरराज चमर प्रभु नहीं है, असुरेन्द्र सुरराज चमर समर्थ नहीं है तथा असुरेन्द्र असुरराज चमर का विषय नहीं है कि वह अपनी निश्रा (शक्ति) से ऊर्ध्वलोक में यावत् सौधर्म कल्प तक आएं। वह अर्हत्, अर्हत चैत्य अथवा भावितात्मा अनगार की निश्रा के बिना ऊर्ध्वलोक में यावत् सौधर्म कल्प तक नहीं आ सकता । अतः मेरे लिए यह महान् कष्ट का विषय है कि मैंने तथारूप अर्हतु, भगवान और अनगारों की अति आशातना की है । ऐसा सोच कर वह अवधिज्ञान का प्रयोग करता है | अवधिज्ञान से मुझे देखता है। मुझे देख कर 'हा! हा! अहो ! मैं मारा गया' ऐसा कह कर वह उस उत्कृष्ट पावत् दिव्य देवगति से बज की वीधि का अनुगमन करता हुआ तिरछे लोक में असंख्य द्वीपसमुद्रों के ठीक मध्य भाग से गुजरता हुआ यावत् जहां प्रवर अशोक वृक्ष है, जहां मेरा पार्श्व है वहां आता है। आ कर मुझसे चार अंगुल दूर रहे वज्र को उसने पकड़ लिया और गौतम ! उसकी मुट्ठी से उठी हुई हवा से मेरे केशाग्र प्रकम्पित हो गए।
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११६. वह देवेन्द्र देवराज शक्र वज्र को पकड़कर तीन बार दांई ओर से प्रारम्भ कर मेरी प्रदक्षिणा करता है, प्रदक्षिणा कर वन्दन - नमस्कार करता है, वन्दननमस्कार कर इस प्रकार बोलाभते असुरेन्द्र असुरराज चमर ने आपकी निश्रा से स्वयं ही मेरी अति आशातना की। तब मैंने कुपित हो कर असुरेन्द्र असुरराज चमर का वध करने के लिए वज्र का प्रक्षेपण किया। उस समय मेरे मन में यह इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ - असुरेन्द्र असुरराज चमर प्रभु नहीं है, असुरेन्द्र असुरराज चमर समर्थ नहीं है तथा असुरेन्द्र असुरराज चमर का विषय नहीं है कि वह अपनी मिश्रा (शक्ति) से ऊर्ध्वलोक में यावत् सोधर्म कल्प तक आए वह अर्हत, अर्हत् चेत्य अथवा भावितात्मा अनगार की निश्रा के बिना ऊर्ध्वलोक में यावत् सौधर्म कल्प तक नहीं आ सकता । अतः मेरे लिए यह महान् कष्ट का विषय है कि मैंने इन तथारूप अर्हत्, भगवान और अनगारों की अति आशातना की है। ऐसा सोच कर मैं अवधिज्ञान का प्रयोग करता
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