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________________ भगवई ५१ श.३ : उ.२ : सू.११२ अमरिसं वहमाणे चमरचंचाए रायहाणए रत्नमादाय महद् अमर्ष वहन् चमरचञ्चायाः किसी दूसरे के सहारे की अपेक्षा नहीं रखता हुआ मज्झमज्झेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता जेणेव राजधान्याः मध्यंमध्येन निर्गच्छति, निर्गम्य वहां से परिघरत्न ले कर बहुत अधिक क्रोध करता तिगिछिकूडे उप्पायपव्वए तेणेव उवागच्छइ, यत्रैव तिगिंछिकूटः उत्पातपर्वतः तत्रैव उपा- हुआ चमरचञ्चा राजधानी के ठीक मध्यभाग से उवागच्छित्ता वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहण्णइ, गच्छति, उपागम्य वैक्रियसमुद्घातेन सम- निर्गमन करता है। निर्गमन कर जहां तिगिञ्छिकूट समोहणित्ता जाव उत्तरवेउब्वियं रूवं विकुम्बइ, वहन्यते, समवहत्य यावद् उत्तरवैक्रियरूपं उत्पात पर्वत है, वहां आता है। आ कर वैक्रिय विकुवित्ता ताए उक्किट्ठाए तुरियाए चवलाए विकुरुते, विकृत्य तया उत्कृष्टया त्वरया समुद्घात से समवहत होता है। समवहत हो कर यावत् चंडाए जइणाए छेयाए सीहाए सिग्घाए चपलया चण्डया जविन्या छेकया सैंया शीघ्रया उत्तरवैक्रिय रूप' का निर्माण करता है। निर्माण कर उद्धृयाए दिवाए देवगईए तिरियं असंखेज्जाणं उद्धृतया दिव्यया देवगत्या तिर्यग् असंख्येयानां उस उत्कृष्ट, त्वरित, चपल चण्ड, जविनी, छेक, सैंही, दीवसमुद्दाणं मझमज्झेणं वीईवयमाणे-वीई- द्वीप-समुद्राणां मध्यंमध्येन व्यतिव्रजन्-व्यति- शीघ्र, उद्धृत और दिव्य देवगति से तिरछी दिशा में वयमाणे जेणेव जंबुद्दीवे दीवे जेणेव भारहे व्रजन् यत्रैव जम्बूद्वीपः द्वीपः, यत्रैव भारतः असंख्य द्वीप-समुद्रों के मध्य भाग से गुजरता-गुजरता वासे जेणेव सुंसुमारपुरे नगरे जेणेव असोय- वर्षः यत्रैव सुंसुमारपुर नगरं, यत्रैव अशोक- जहां जम्बूद्वीप द्वीप, भारतवर्ष सुसुमारपुर नगर, संडे उज्जाणे जेणेव असोयवरपायवे जेणेव षण्डम् उद्यानं, यत्रैव अशोकवरपादपः, यत्रैव अशोकषण्ड उद्यान, प्रवर अशोकवृक्ष और पृथ्वीशिला पुढविसिलावट्टए जेणेव ममं अंतिए तेणेव पृथिवीशिलापट्टकः, यत्रैव मम अन्तिकं, तत्रैव पट्ट है, जहां मेरा परिपार्श्व है, वहां आता है। आ कर उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ममं तिक्खुत्तो उपागच्छति, उपागम्य मम त्रिकृत्वः आदक्षिण- तीन बार दाई ओर से प्रारम्भ कर मेरी प्रदक्षिणा करता आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ, प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा वन्दते, नमस्यति, है। प्रदक्षिणा कर वन्दन-नमस्कार करता है। वन्दननमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी- वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीद्-इच्छामि नमस्कार कर इस प्रकार बोला-भंते! मैं आपकी इच्छामि णं भंते! तुम नीसाए सक्कं देविंदं भदन्त! तवां निश्रित्य शक्रं देवेन्द्रं देवराज निश्रा से देवेन्द्र देवराज शक की अति आशातना देवरायं सयमेव अच्चासाइत्तर त्ति कटु स्वयमेव अत्याशातयितुम् इति कृत्वा उत्तर- करना चाहता हूं, ऐसा कह कर वह उत्तर-पौरस्त्य उत्तरपुरस्थिमं दिसीभार्ग अवक्कमेइ, अवक्क- पौरस्त्यं दिग्भागम् अपक्रामति, अपक्रम्य दिग्भाग (ईशानकोण) में पहुंचता है। पहुंच कर वैक्रिय मेत्ता वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहण्णति, समो- वैक्रियसमुद्घातेन समवहन्यते, समवहत्य समुद्घात से समवहत होता है। समवहत हो कर हणित्ता जाव दोच्चं पि वेउब्वियसमुग्घाएणं यावद् द्वितीयमपि वैक्रियसमुद्घातेन समव- यावत् दूसरी बार फिर वैक्रिय समुद्धात से समवहत समोहण्णइ, एगं महं घोरं घोरागारं भीमं हन्यते, एकं महद्घोरं घोराकारं भीमं भीमाकारं होता है। एक महान् घोर, घोर आकार वाले, भयंकर, भीमागारं भासुरं भयाणीयं गंभीरं उत्तासणयं भासुरं भयानीकं गम्भीरं उत्त्रासनकं कालार्ध- भयंकर आकार वाले, भास्वर (चौंधियाने वाले) कालड्ढरत्त-मासरासिसंकासं जोयणसय- रात्र-माषराशिसंकाशं योजनशतसाहसिक भयानक", गंभीर, त्रास देने वाले, अमा की अर्धरात्रि साहस्सीयं महाबोंदि विउव्वइ, विउव्वित्ता महाबोंदि विकुरुते, विकृत्य आस्फोटयति और उरद की राशि जैसे काले एक लाख योजन की अप्फोडेइ वग्गइ गज्जइ, हयहेसियं करेइ, वल्गति गर्जति, हयहेषितं करोति, हस्ति- अवगाहना वाले महाशरीर का निर्माण करता है। हत्थिगुलगुलाइयं करेइ, रहघणघणाइयं करेइ, गुलगुलायितं करोति, रथघनघनायितं करोति, निर्माण कर हाथों को आकाश में उछालता है, कूदता पायदद्दरगं करेइ, भूमिचवेडयं दलयइ, सीह- पाददर्दरकं करोति, भूमिचपेटकं ददाति, है, गर्जन करता है, अश्व की भांति हिनहिनाता है, णादं नदइ, उच्छोलेइ पच्छोलेइ, तिवति छिंदइ, सिंहनादं नदति, उच्छलति प्रोच्छलति, त्रिपदी हाथी की भांति चिंघाड़ता है, रथ की भांति घनघनाहट वामं भुयं ऊसवेइ, दाहिणहत्थपदेसिणीए अंगु- छिनत्ति, वामं भुजं उच्छ्यति, दक्षिणहस्त- (घड़घड़ाहट) करता है, पैरों से भूमि पर प्रहार करता ट्ठणहेण य वितिरिच्छं मुहं विडंवेइ, महथा- प्रदेशिन्या अंगुष्ठनखेन च वितिर्यग् मुखं है, भूमि पर चपेटा मारता है, सिंहनाद करता है, -महया सद्देण कलकलरवं करेइ, एगे अबीए विडम्बयति, महता-महता शब्देन कलकलरवं कभी आगे की ओर चपेटा मारता है, कभी पीछे की फलिहरयणमायाए उड्ढं वेहासं उप्पइए- करोति, एकः अद्वितीयः परिधरत्नमादाय ओर, त्रिपदी का छेद करता है, बांई भुजा को ऊंचा खोभंते चेव अहेलोयं कंपेमाणे व मेइणीतलं ऊर्ध्वं विहायसि उत्पतितः- क्षोभयन् चैव उठाता है, दाएं हाथ की तर्जनी अंगुली और अंगूठे साकड्ढ़ते व तिरियलोयं, फोडेमाणे व अंबर- अधोलोकं कम्पयन् इव मेदिनीतलं समाकर्ष- के नख द्वारा मुंह को टेढ़ा कर विकृत करता है, तलं, कत्थइ गज्जते, कत्थइ विज्जुयायंते, यन् इव तिर्यग्लोक, स्फोटयन् इव अम्बरतलं, ऊंचे-ऊंचे शब्द से, कलकलरव करता है। (इस भयानक कत्थइ वासं वासमाणे, कत्थइ रयुग्घायं कुत्रापि गर्जन, कुत्रापि विद्युतयन्, कुत्रापि ___मुद्रा में) उसने अकेले, किसी दूसरे के सहारे की पकरेमाणे, कत्थइ तमुक्कायं पकरेमाणे, वर्षां वर्षयन्, कुत्रापि रजउद्घातं प्रकुर्वन् , अपेक्षा नहीं रखता हुआ परिघरत्न को ले कर ऊपर वाणमंतरे देवे वित्तासेमाणे-वित्तासेमाणे, कुत्रापि तमस्कायं प्रकुर्वन्, वानमन्तरान् दे- आकाश की उड़ान भरी। मानो अधोलोक को क्षुब्ध जोइसिए देवे दुहा विभयमाणे-विभयमाणे, वान् वित्रासयन्-वित्रासयन्, ज्योतिष्कान् देवान् कर रहा है, भूमितल को कम्पित कर रहा है, तिरछे आयरक्खे देवे विपलायमाणे-विपलायमाणे, द्विधा विभजन-विभजन, आत्मरक्षान् देवान् लोक को खींच रहा है, अम्बरतल का स्फोटन कर फलिहरयणं अंबरतलंसि वियट्टमाणे-वियट्ट- विपरायमानः विपरायमानः,परिधरत्नं अम्बर- रहा है, कहीं गरज रहा है, कहीं बिजली बन कौंध माणे, विउन्माएमाणे-विउब्भाएमाणे ताए तले व्यावर्तयन-व्यावर्तयन, व्युभ्राजमानः- रहा है, कहीं वर्षा बरसा रहा है, कहीं धूलि-विकिरण उक्किट्ठाए तुरियाए चवलाए चंडाए जइणाए व्युभ्राजमानः तया उत्कृष्टया त्वरितया कर रहा है, कहीं सघन अन्धकार कर रहा है, छेयाए सीहाए सिग्याए उद्धृयाए दिव्वाए चपलया चण्डया जविन्या छेकया सैंया शीघ्र- वानव्यन्तर देवों को संत्रस्त करता हुआ-संत्रस्त Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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