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________________ श. ३ : उ. २ : सू.११०-११२ करयलपरिग्गहिय दसनहं सिरसावतं मत्यए अंजलि कट्टु एणं विजएणं वद्धावेंति, वृद्धावेत्ता एवं वयासी –एस णं देवाणुप्पिया! सक्के देविंदे देवराया जाव दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमा विहरइ ॥ १११. तए णं से चमरे असुरिंदे असुरराया तेसिं सामाणियपरिसोदवणगाणं देवाणं अंतिए एयमहं सोच्चा निसम्म आसुरुते रुट्ठे कुविए चडिक्किए मिसिमिसेमाणे ते सामाणियपरिसोववण्णगे देवे एवं वयासी - अण्णे खलु गो से सक्के देविंदे देवरावा, अग्गे खतु भो! से चमरे असुरिंदे असुरराया, महिड्ढीए खलु भो ! से सक्के देविंदे देवराया, अप्पि - डीए खतु भो से चमरे असुरिंदे असुरराया, तं इच्छामि णं देवाप्पिया ! सक्कं देविंद देवरायं सयमेव अच्चासात्तए ति कट्टु उ सिणे उसिए जाए यावि होत्या ॥ १. अति आशातना (अच्चासाइत्तए) शोभा या प्रतिष्ठा से च्युत करने के लिए। " चमरस्स भगवओ णीसापुव्वं सक्कस्स आसायण-पदं ११२. तए णं से चमरे असुरिंदे असुरराया ओहिं परंजइ, परंजित्ता ममं ओहिणा आभोएइ, आभोएत्ता इमेवारूवे अन्झत्थिए चितिए पत्थि मणोग संकप्पे समुप्पज्जित्था - एवं खलु समणे भगवं महावीरे जंबूदीवे दीवे भारहे वासे सुंसुमारपुरे नयरे असोगसंडे उज्जाणे असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलावट्टयंसि अट्टमभत्तं परिहित्ता एगराइयं महापडिमं उदसंपज्जिता णं विहरति तं सेयं खलु में समणं भगवं महावीर णीसाए सक्क देविंदं देवरायं सयमेव अवसादतए ति कट्टु एवं संपेहेइ, संपेत्ता सयणिज्जाओ अब्भुट्ठेइ, अद्वेत्ता देवदूतं परिहेइ परिहेत्ता जेणेव सभा सुहम्मा जेणेव चोष्णाले पहरणकोसे तेनेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता फलिहरयणं परामुसइ, एगे अबीए फलिहरयणमायाए महया १. भ. वृ. ३/१११ - अत्याशातयितुं छायाया भ्रंशयितुमिति । Jain Education International ५० हृदयाः करतलपरिगृहीतां दशनखां शिरसावतो मस्तके अञ्जलिं कृत्वा जयेन विजयेन वर्धापयन्ति, वर्धापयित्वा, एवमवादिषुः - एष देवानुप्रिय ! शक्रः देवेन्द्रः देवराजः यावद् दिव्यान् भोग्यभोगान् भुञ्जानः विहरति । ततः सः चमरः असुरेन्द्रः असुरराजः तेषां सामानिकपरिषदुपपन्नकानां देवानाम् अन्तिके एतदर्थं श्रुत्वा निशम्य आशुरुप्तः रुष्टः कुपितः वाण्डिक्यतः मिसिमिसिमानः न सामानिकपरिषदुपपन्नकान् देवान् एवमवादीद् — अन्यः खलु भो! सः शक्रः देवेन्द्रः देवराजः, अन्य खलु भोः ! सः चमरः असुरेन्द्रः असुरराजः, महकि खलु भोः सः शक्रः देवेन्द्रः देवराज अल्पर्दिकः खलु भोः! सः चमरः असुरेन्द्रः असुरराजः तद् इच्छामि देवानुप्रियाः । शक्रं देवेन्द्रं देवराजं स्वयमेव अत्याशातयितुम् इति कृत्वा उष्णः उष्णभूतः जातस्यापि अभवत् । भाष्य भगवई गया। वे दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट वाली दशनखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख घुमा कर मस्तक पर टिका कर असुरेन्द्र को जय-विजय ध्वनि से वर्धापित करते हैं। वर्धापित कर इस प्रकार बोलेदेवानुप्रिय ! यह देवेन्द्र देवराज शक्र है, यावत् दिव्य भोगार्ह भोग भोगता हुआ रहता है। -- For Private & Personal Use Only १११ वह असुरेन्द्र असुरराज चमर सामानिक परिषद् में उपपन्न उन देवों के पास यह बात सुन कर, अवधारण कर तत्काल आवेश में आ गया, रुष्ट हो गया, कुपित हो गया। उसका रूप रौद्र बन गया, वह क्रोध की अग्नि से प्रदीप्त हो उठा। उसने उन सामानिक देवों से इस प्रकार कहा - देवानुप्रियो ! वह देवेन्द्र देवराज शक्र अन्य है, हमारा विरोधी है। वह असुरेन्द्र असुरराज चमर अन्य है, उसका विरोधी है। वह देवेन्द्र देवराज शक्र महर्द्धिक है और वह असुरेन्द्र असुरराज चमर अल्प ऋद्धि वाला है। इसलिए देवेन्द्र देवराज शक्र की मैं स्वयं अति आशातना' (उसे श्रीहीन) करना चाहता हूं, ऐसा कह कर वह तप्त हो गया, तापमय बन गया। चमरस्य भगवतः निश्रापूर्वं शक्रस्य चमर का भगवान की निश्रापूर्वक शक्र की आशाआशातन-पदम् तना का पद ततः सः चमरः असुरेन्द्रः असुरराजः अवधि प्रयुनक्ति, प्रयुज्य माम् अवधिना आभोगयति, आभोग्य (तस्य) अयमेतदुप आध्यात्मिकः चिन्तितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुदपादि - एवं खलु श्रमणः भगवान् महावीरः जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे सुसुमारपुरे नगरे अशोकषण्डे उद्याने अशोकवरपादपस्य अधः पृथिवीशिलापट्टके अष्टमभक्तं प्रगृह्य एकरात्रिकी महाप्रतिमाम् उपसंपद्य विहरति तत् श्रेयः खलु मम श्रमण भगवन्तं महावीरं निश्चित्व शक्रं देवेन्द्र देवराजं स्वयमेव आपाशातयितुम् इति कृत्वा एवं संप्रेक्षते, संप्रेक्ष्य शयनीयाद् अभ्युतिष्ठति, अभ्युत्थाय देवदूष्यं परिदधाति, परिधाय यत्रैव सभा सुधर्मा यत्रेव चतुष्पालः प्रहरणकोशः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य परिघरत्नं परामृशति, एकः अद्वितीयः स्फटिक ११२. वह असुरेन्द्र असुरराज चमर अवधिज्ञान का प्रयोग करता है। प्रयोग कर अवधिज्ञान से मुझे (भगवान् महावीर को देखता है। देखने के बाद उसके यह इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ- इस समय श्रमण भगवान् महावीर जम्बूद्वीप द्वीप के भारतवर्ष में सुमारपुर नगर के अशोकखण्ड उद्यान में प्रवर अशोकवृक्ष के नीचे पृथ्वीशिलापट्ट पर तीन दिन के उपवास का संकल्प ग्रहण कर एक रात की महाप्रतिमा स्वीकार कर ठहरे हुए हैं। मेरे लिए श्रमण भगवान् महावीर का सहारा लेकर देवेन्द्र देवराज शक्र की अतिआशातना करना श्रेयस्कर है, ऐसा सोच कर वह संप्रेक्षा करता है, संप्रेक्षा कर शय्या से उठता है, उठ कर देवदूष्य धारण करता है, धारण कर जहां सुधर्मा सभा और चोप्पाल नामक शस्त्रागार है वहां आता है। आ कर परिघरत्न' को हाथ में लेता है, वह अकेला www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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