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भगवई
श.३ : उ.८:सू.२५०-२७८ देवा आहेवच्चं जाव विहरंति?
देवाः आधिपत्यं यावद् विहरन्ति?
गोयमा! दस देवा आहेवच्चं जाव विहरंति, तं जहा-सक्के देविंद देवराया, सोमे, जमे, वरुणे, वेसमणे। ईसाणे देविंदै देवराया, सोमे, जमे, वेसमणे, वरुणे।
गौतम! दश देवाः आधिपत्यं यावद् विहरन्ति, तद् यथा-शक्रः देवेन्द्रः देवराजः, सोमः, यमः, वरुणः, वैश्रवणः। ईशानः देवेन्द्रः देवराजः, सोमः, यमः, वैश्रवणः, वरुणः।
में आधिपत्य करते हुए यावत दिव्य भोग भोगते हुए विहरण करते हैं। गौतम! दस देव उनमें आधिपत्य करते हुए यावत् दिव्य भोग भोगते हुए विहरण करते हैं, जैसे-देवेन्द्र देवराज शक्र, सोम, यम, वरुण, और वैश्रवण। देवन्द्र देवराज ईशान, सोम, यम, वैश्रवण और वरुण। इस वक्तव्यता के अनुसार सभी कल्पों में ये लोकपाल वक्तव्य हैं जहां जो इन्द्र है वहां वह वक्तव्य है।
एसा वत्तव्वया सव्वेसु वि कप्पेसु एए चेव भाणियव्वा। जे य इंदा ते य भाणियव्वा ॥
एषा वक्तव्यता सर्वेषु अपि कल्पेषु एते चैव भणितव्याः। ये च इन्द्राः ते च भणितव्याः ।
भाष्य
१. सूत्र २५०-२७७
यह आलापक सू. २५०-२७७ देववाद के सिद्धान्त के महत्त्वपूर्ण पक्ष को उजागर करता है। हमारी पृथ्वी के साथ उन देवों का क्या संबंध है, इस पर नया प्रकाश पड़ता है। प्रस्तुत आगम के १४वें शतक में भी इस विषय का उल्लेख मिलता है।" जैन दर्शन ईश्वरकर्तृत्त्ववादी
और देवकर्तृत्त्ववादी नहीं है। प्रस्तुत आलापक में कर्तृत्त्व का उल्लेख नहीं है, किंतु देवों की अवबोधात्मक सहभागिता का पक्ष प्रस्तुत हुआ
है। प्राकृतिक वातावरण और मानवीय-क्रियाकलापों में देव सहयोगी
और सहभागी हो सकते हैं। इससे आत्म-कर्तृत्त्व का सिद्धान्त खण्डित नहीं होता। प्राकृतिक वातावरण में देवों का कर्तव्य भी हो सकता है। इसी प्रकार देव भी वर्षा और अन्य पौद्गलिक परिवर्तन करने में सक्षम हैं। इन्द्र और असुरकुमार देवों के द्वारा वृष्टि करने का उल्लेख प्रस्तुत आगम में अन्यत्र भी मिलता है।
२७८. सेवं भंते! सेवं भंते! ति ॥
तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त ! इति।
२७८. भंते! वह ऐसा ही है, भन्ते! वह ऐसा
ही है।
१. भ. १४/११७-१२। २. वही, १४/२१-२४॥
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