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श.५: उ.६: सू.१२४-१२८
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भगवई
गोयमा! नो पाणे अइवाएत्ता, नो मुसं वइत्ता, गौतम ! नो प्राणान् अतिपात्य, नो मृषां तहारूवं समणं वा माहणं वा वंदित्ता नमंसित्ता वदित्वा, तथारूपं श्रमणं वा, माहनं वा, जाव पज्जुवासित्ता अण्णयरेणं मणुण्णेणं वन्दित्वा नमस्थित्वा यावत् पर्युपास्य अपीतिकारएणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं न्यतरेण मनोज्ञेन प्रीतिकारकेण अशन-पानपडिलाभेत्ता- एवं खलु जीवा सुभदीहा- -खाद्य-स्वाद्येन प्रतिलाभ्य–एवं खलु उयत्ताए कम्मं पकरेंति।।
जीवा: शुभदीर्घायुष्कतया कर्म प्रकुर्वन्ति।
गौतम! प्राणों का अतिपात न कर, झूठ न बोल कर, तथारूप श्रमण अथवा माहन को वन्दन-नमस्कार कर यावत् उसकी पर्युपासना कर उसे किसी प्रकार के मनोज्ञ एवं प्रीतिकर अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य से प्रतिलाभित कर-इस प्रकार जीव शुभ दीर्घ आयुष्य वाले कर्म का बन्ध करते हैं।
भाष्य
१. सूत्र १२४-१२७
आयुष्य-बन्ध के विषय में कर्मशास्त्रीय मत भ. आठवें शतक (सू. ४२५-४२८) में निदर्शित है। उसके अनुसार नरक आयुष्य के बन्ध में हिंसा का निर्देश है और तिर्यग्योनिक आयुष्य के बन्ध में मृषा-वचन का उल्लेख है। आहार-दान विषयक उल्लेख उनमें नहीं है।
प्रस्तुत आलापक में अल्प आयुष्य और दीर्घ आयुष्य का स्पष्ट अर्थ उपलब्ध नहीं है। दुर्गति का दीर्घ आयुष्य अच्छा नहीं होता, अल्प आयुष्य अच्छा होता है। सुगति का अल्प आयुष्य अच्छा नहीं होता, दीर्घ आयुष्य अच्छा होता है।
हिंसा, असत्य और अकल्पनीय वस्तु के दान से मनुष्य-गति और देवगति के आयुष्य का बन्ध नहीं होता। नरक गति में अल्प आयुष्य नहीं होता। तिर्यञ्च गति में अल्प आयुष्य होता है, इसलिए प्रस्तुत आलापक में अल्प आयुष्य का सम्बन्ध तिर्यञ्च गति के आयुष्य से होना चाहिए।
अशुभ दीर्घ आयुष्य चारों गतियों में हो सकता है। शुभ दीर्घ आयुष्य (नरक गति को छोड़कर) तीनों गतियों में हो सकता है।
यह पूरा आलापक ठाण में भी उपलब्ध है।२
प्रस्तुत आलापक में अप्रासुक और अनेषणीय दान के द्वारा अल्प आयु के बन्ध का निर्देश है और भ.८/२४६ में अप्रासुक और अनेषणीय दान के द्वारा निर्जरा का निर्देश है। यह विरोधाभास विमर्शनीय है। द्रष्टव्यभ. ८/२४५-२४७ का भाष्य। शब्द-विमर्श
अप्रासुक-सचित्त, अनभिलषणीय (विशेष मीमांसा के लिए द्रष्टव्य भ. ११४३८, ४३९ का भाष्य)।
अनेषणीय---- मुनि के लिए अकल्पनीय , अग्राह्य।
कयविक्कए किरिया-पदं
क्रयविक्रय-क्रिया-पदम्
क्रय-विक्रय-क्रिया-पद १२८. गाहावइस्स णं भंते ! भंडं विक्कि- गृहपते: भदन्त! भाण्डं विक्रीणानस्य कश्चिद् १२८. 'भन्ते! एक गृहपति भाण्ड बेच रहा है। उस समय णमाणस्स केइ भंड अवहरेज्जा, तस्स णं भाण्डम् आहरेत, तस्य भदन्त! भाण्डम् कोई व्यक्ति भाण्ड का अपहरण कर ले, उस अपहत भंते ! भंडं अणुगवेसमाणस्स किं आरंभिया अनुगवेषयत: किम् आरम्भिकी क्रिया भाण्डकी गवेषणा करते हुए गृहपति के क्याआरंभिकी किरिया कज्जइ? पारिग्गहिया किरिया क्रियते? पारिग्रहिकी क्रिया क्रियते? माया- क्रिया होती है? पारिग्रहिकी क्रिया होती है? कज्जइ? मायावत्तिया किरिया कज्जइ? प्रत्यया क्रिया क्रियते? अप्रत्याख्यानक्रिया मायाप्रत्यया क्रिया होती है? अप्रत्याख्यानक्रिया अपच्चक्खाणकिरिया कज्जइ? मिच्छा- क्रियते? मिथ्यादर्शनप्रत्ययाक्रिया क्रियते? होती है? अथवा मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया होती है? दसणवत्तियाकिरिया कज्जइ? गोयमा! आरंभिया किरिया कज्जइ, पारि- गौतम! आरम्भिकी क्रिया क्रियते, पारिग्रहि- गौतम! उसके आरंभिकी क्रिया होती है, पारिग्रहिकी ग्गहिया कि रिया कज्जइ, मायावत्तिया की क्रिया क्रियते, मायाप्रत्यया क्रिया क्रियते, क्रिया होती है, मायाप्रत्यया क्रिया होती है, अप्रत्याकिरिया कज्जइ, अपच्चक्खाणकिरिया अप्रत्याख्यानक्रिया क्रियते, मिथ्यादर्शन- ख्यानक्रिया होती है और मिथ्यादर्शन क्रिया कदाकज्जइ, मिच्छादसणकिरिया सिय कज्जइ, क्रिया स्यात् क्रियते, स्यान् नो क्रियते। चित् होती है, कदाचित् नहीं होती। सिय नो कज्जइ। अह से भंडे अभिसमण्णागए भवइ, तओ से अथ तद् भाण्डम् अभिसमन्वागतं भवति, जब वह अपहत भाण्ड मिल जाता है, तब वे सब पच्छा सव्वाओ ताओ पयणुईभवंति। तत: तस्य पश्चात् सर्वा: ता: प्रतनुकीभवन्तिा क्रियाएं पतली हो जाती हैं।
१. द्रष्टव्य, भ. ८/४२७, ४२८॥ २. ठाणं, ३३१७-२०
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