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________________ भगवई प्रारम्भ कर देते हैं। कुछ जीव मारणांतिक समुद्घात के द्वारा अपने भावी जन्मस्थान तक पहुंचकर लौट आते हैं। वे वहां आहार ग्रहण, उसका परिणमन और शरीर निर्माण नहीं करते। दूसरी बार मारणांतिक समुद्घात का प्रयोग करने वाले वहां जन्म लेकर आहार ग्रहण, उसका परिणमन और शरीर का निर्माण करते हैं। यह नियम नरक के आवासों से लेकर अनुत्तर विमान तक के सभी जन्म स्थानों में समान है । द्वीन्द्रिय आदि जीवों के आवास स्थान लोक के एक भाग में हैं। एकेन्द्रिय के आवास स्थान सम्पूर्ण लोक में है, इसलिए वे जीव लोकान्त तक उत्पन्न होते हैं। प्रत्येक जीव का १ १२८. सेवं भंते सेवं भंते । ति ॥ तदेवं भदन्त । तदेवं भदन्त १. उत्तर. ३६ / १२० २. भ.जो. २/१०५ / ३३-३८- Jain Education International सुहुमा सव्व लोगम्मि, लोगदेसे य बायरा ॥ असंख्यातपरदेश, अवगाहै आकाश नैं । जीव स्वभाव विशेष, तिण प्रकार करिकै इहां ॥ एक प्रदेश नीं श्रेण, खंध जीव नु नां रहे। पाठ जीवेणं तेण, रहे अनेक प्रदेश में ।। वयों एक प्रदेश, प्रतिपक्ष इक शब्द नुं । २८३ श. ६ : उ. ६ सू. १२० १२८ आकाश के असंख्य प्रदेशों में अवगाहन होता है, इसलिए वह एक प्रदेशात्मक आकाश श्रेणी को छोड़कर अनेक प्रदेशात्मक — असंख्य प्रदेशात्मक आकाश श्रेणी में उत्पन्न होता है। जयाचार्य ने एक का प्रतिपक्ष 'अनेक' बतलाया है। उनके मतानुसार 'अनेक' असंख्य के अर्थ में विवक्षित है। शब्द - विमर्श - बालाग्र - बालाग्र आदि शब्दों की जानकारी के लिए द्रष्टव्य भ. ६ / १३४ का भाष्य । इति । १२८. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है। For Private & Personal Use Only अनेक कहिय शेष, तेह विषे रहै जीवड़ो ।। अनेक शब्दे ताहि, प्रदेश असंख्य लीजिये । उणां प्रदेशां मांहि, खंध जीव नो नहिं रहै ॥ दशवैकालिक देख, जीव अनेक पृथ्वी मझे। चउथै अध्येन पेख, तेह असंखिज्ज जाणवा || तिम इहां पिण अवलोय, एक शब्द करि वर्जिया । अनेक रह्या सुजोय, असंखिज्ज इहां पिण अछे ।। www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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