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श.६ : उ.८:सू.१३७-१५१
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भगवई
तीसरा, चौथा और पांचवां स्वर्ग धनवात-प्रतिष्ठित हैं। उनके नीचे जल और वनस्पति कैसे हो सकते हैं? वृत्तिकार के अनुसार तमस्काय के कारण उनमें बादर अप्काय और बादर वनस्पतिकाय का अस्तित्व संभव है।
छठा, सातवां और आठवां-ये तीन स्वर्ग अप् और वायुघनोदधि और घनवात-प्रतिष्ठित हैं।
नवें स्वर्ग से लेकर शेष अठारह स्वर्ग आकाश-प्रतिष्ठित हैं। उनके नीचे बादर अप्काय और बादर वनस्पतिकाय नहीं हैं।'
छठा, सातवां और आठवां--ये तीन स्वर्ग घनोदधि और घनवात-प्रतिष्ठित हैं तब उनके नीचे बादर अप्काय और बादर वनस्
पतिकाय का निषेध कैसे हो सकता है? अभयदेवसूरि और जयाचार्य ने इसके समाधान में लिखा है—इन तीनों स्वर्गों के नीचे अनन्तर रूप में घनवात विद्यमान है, फिर घनोदधि है। इस घनवात की अपेक्षा से तीन स्वर्गों के नीचे बादर अप्काय और बादर वनस्पतिकाय का निषेध किया गया है। प्रवचनसारोद्धार में विमान के प्रतिष्ठान का वर्णन मिलता है
घनोदधिप्रतिष्ठाना विमाना: कल्पयोर्द्वयोः । त्रिषु वायु प्रतिष्ठानास्त्रिषु वायूदधिस्थिताः ॥५३॥ ते व्योम विहितस्थाना: सर्वेप्युपरिवर्तिनः । इत्यूद्धर्वलोकविमानप्रतिष्ठानविधिः स्मृतः ॥५४॥
आउयबंध-पदं १५१. कतिविहे णं भंते ! आउयबंधे पण्णते?
आयुष्कबन्ध-पदम्
आयुष्कबन्ध-पद कतिविध: भदन्त ! आयुष्कबन्ध: प्रज्ञप्तः? १५१. 'भन्ते! आयुष्य का बन्ध कितने प्रकार का प्रज्ञप्त
गोयमा! छविहे आउयबंधे पण्णत्ते, तं जहा गौतम ! षड्विधः आयुष्कबन्धः प्रज्ञप्त:,
-जातिनामनिहत्ताउए, गतिनामनिहत्ता- तद्यथा--जातिनामनिधत्तायुष्कः, गतिउए, ठितिनामनिहत्ताउए, ओगाहणानाम- नामनिधत्तायुष्कः, स्थितिनामनिधत्तानिहत्ताउए, पएसनामनिहत्ताउए, अणुभाग- युष्कः, अवगाहनानामनिधत्तायुष्कः, प्रदेशनामनिहत्ताउए। दंडओ जाव वेमाणियाणं॥ नामनिधत्तायुष्कः, अनुभागनामनिधत्ता
युष्कः। दण्डक: यावद् वैमानिकानाम् ।
गौतम ! आयुष्य का बन्ध छह प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-जातिनामनिषिक्तायुष्य, गतिनामनिषिक्तायुष्य, स्थितिनामनिषिक्तायुष्य, अवगाहनानामनिषिक्तायुष्य, प्रदेशनामनिषिक्तायुष्य और अनुभागनामनिषिक्तायुष्य नरक से लेकर वैमानिक तक सभी दंडको में छह प्रकार के आयुष्य का बन्ध होता है।
भाष्य
१. सूत्र १५१
कर्म आठ हैं। उनमें पांचवां कर्म है आयुष्या इसके पुद्गलों से जीवनी-शक्ति का निर्माण होता है। अगले जन्म के आयुष्य का बन्धवर्तमान में हो जाता है। आयुष्य के बन्ध-काल में छह अन्य कर्म-प्रकृतियों का भी बन्ध होता है। उनसे जीवन के विभिन्न पक्ष निर्धारित होते हैं। जाति नाम कर्म से यह निर्धारण होता है कि जन्म लेने वाला एकेन्द्रिय होगा यावत् पंचेन्द्रिय होगा। गति नाम कर्म से यह निर्धारण होता है कि जन्म लेने वाला नरक गति में उत्पन्न होगा यावत् देवगति में उत्पन्न होगा। स्थिति नाम कर्म से जन्म लेने वाले की जीवन की कालावधि का निर्धारण होता है। अवगाहना नाम कर्म से औदारिक अथवा वैक्रिय शरीर का निर्धारण होता है। प्रदेश नाम
कर्म से आयुष्य कर्म के पुद्गलों का परिमाण निर्धारित होता है। अनुभाग नाम कर्म से आयुष्य कर्म के पुद्गलों का विपाक निर्धारित होता है।
आयुष्य कर्म के उदय का पहला क्षण नए जीवन का पहला क्षण होता है। उसके साथ ही जाति नाम, गति नाम आदि का उदय प्रारंभ हो जाता है। आयुष्य कर्म के साथ जाति, गति आदि का सहचारी भाव है। आयुष्य के उदय के साथ इनका उदय होता है और आयुष्य के विराम के साथ इनका विराम हो जाता है।
गति-नाम के साथ नाम कर्म की अन्य प्रकृतियों का भी बन्ध होता है। उनका विस्तृत विवरण शतक में उपलब्ध है।
कर्म-बन्ध के क्षण में आयुष्य के साथ जाति नाम आदि का
१. (क) भू. व.६/१५०-इहातिदेशतो बादराबवनस्पतीनां सम्भवोऽनुमीयते, स च तमस्कायसद्भावतोऽवसेय इति। (ख) भ. जो. २/१०८/४०-४१
तृतीय तुर्य ब्रह्म सोय,घनवाय आधारे अछ। तसु तल अप किम होय? बनस्पति वलि किम हुवै?| संभव तास जणाय, तमस्काय सद्भाव थी।
अतिदेश थकी कहिवाय, वृत्ति विषे ए न्याय छै॥ २. भ. जो. २/१०८/४५,४७। ३. (क) भ. व. ६/१५०-इह च ब्रह्मलोकोपरितनस्थानानामधो योऽब्वनस्पतिनिषेधः स यान्यब्वायुप्रतिष्ठातानि तेषामध आनन्तर्येण वायोरेव भावादाकाशप्रतिष्ठितानामाकाशस्यैव
भावादवगन्तव्यः । (ख) भ. जो. २/१०८/५८,५९
लंतक प्रमुखज तीन, अपवायु आधार छै। तो किण न्याय सुचीन, बर्जी अप मैं वणस्सई ?॥ त्रिहुं कल्प तल वाय, अंतर-रहित अछै तिही
तसु तल अप इण न्याय, अप वणस्सई निषेध वै ।। ४. प्र. सारो. प. १६०॥ ५. पण्ण. ६/११४-१२३ ६.प.सं.दि. शतक, गा. २६२-२८८ ।
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