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श.७: उ.३:सू.६३-६६
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भगवई
सिय सासया, सिय असासया ॥
यावत् स्यात् शाश्वताः, स्याद् अशाश्वताः ।
यह कहा जा रहा है यावत् नैरयिक स्यात् शाश्वत हैं, स्यात्-अशाश्वत हैं।
६५. एवं जाव वेमाणिया जाव सिय असासया॥ एव यावद् वैमानिकाः यावत् स्याद् अशाश्वताः। ६५. इसी प्रकार यावत् वैमानिक यावत् स्यात् अशाश्वत
भाष्य १. सूत्र ६३-६५
प्रवाह की दृष्टि से नैरयिक शाश्वत हैं और एक-एक व्यक्ति की अपेक्षा वह
अशाश्वत है। जैन दर्शन के अनुसार मूल द्रव्य दो हैं-जीव और अजीव । नैरयिक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव सब जीव के पर्याय हैं। नैरयिक जीव द्रव्य की दृष्टि से
भ. ७/६० में नैरयिक शाश्वत हैं या अशाश्वत-इस प्रश्न पर
द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से विचार किया गया है। प्रस्तुत शाश्वत है और नैरयिक-पर्याय की दृष्टि से अशाश्वत है।
प्रकरण में अव्युच्छित्ति-नय और व्युच्छित्ति-नय की अपेक्षा से शाश्वत और इसकी व्याख्या का दूसरा नय भी है । प्रत्येक नैरयिक एक निश्चित
अशाश्वत का विचार किया गया है। यहां व्याख्या का दूसरा नय प्रासंगिक है। अवधि तक नैरयिक रहता है, उसके पश्चात् वह तिर्यञ्च अथवा मनुष्य की
व्याख्या के प्रथम नय का सम्बन्ध भ.७/६० के साथ है। पर्याय में चला जाता है। नरक कभी भी नैरयिकों से शून्य नहीं होता । अतः ।
६६. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति॥
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त इति।
६६. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है।
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