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श.५ : उ.७: सू.१६०-१६५
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भगवई
यव्वा, जे विसमा ते जहा तिप्पएसिओ तहा तव्याः, ये विषमा: ते यथा त्रिप्रदेशिक: तथा । भाणियब्वा।।
भणितव्याः।
स्कन्ध द्विप्रदेशी स्कन्ध की भांति वक्तव्य हैं। विषम संख्या वाले स्कन्ध (पञ्चप्रदेशी सप्तप्रदेशी आदि) त्रिप्रदेशी स्कन्ध की भांति वक्तव्य हैं।
१६४. संखेज्जपएसिए णं भन्ते ! खंधे किं संख्येयप्रदेशिक: भदन्त ! स्कन्धः किं सार्ध:? १६४. भन्ते ! संख्येयप्रदेशी स्कन्ध क्या स-अर्ध, ससअड्ढे ? पुच्छा। पृच्छा।
मध्य और स-प्रदेश है अथवा अनर्ध, अमध्य और
अप्रदेश है? गोयमा ! सिय सअड्ढे अमज्झे सपएसे, गौतम! स्यात् सार्ध: अमध्य: सप्रदेश:, स्यात् गौतम ! संख्येय प्रदेशी स्कन्ध कथंचित् स-अर्ध, सिय अणड्ढे समज्झे सपएसे। अनर्ध: समध्यः सप्रदेशः।
अ-मध्य और स-प्रदेश है। कथंचित् अनर्ध, स
मध्य और स-प्रदेश है। जहा संखेज्जपएसिओ तहा असंखेज्ज- यथा संख्येयप्रदेशिकः तथा असंख्येयप्रदे- असंख्येयप्रदेशी और अनन्तप्रदेशी स्कन्ध संख्येपएसिओ वि, अणंतपएसिओ वि॥ शिकोऽपि, अनन्तप्रदेशिकोऽपि।
यप्रदेशी स्कन्ध की भांति वक्तव्य है।
भाष्य
१. सूत्र १६०-१६४
परमाणु विशुद्ध रूप में अकेला होता है। वह अपनी स्वतन्त्र अवस्था कहा जा सकता है। जो अप्रदेश होता है, उसका अर्ध नहीं होता और में अप्रदेश-प्रदेश शून्य होता है। किसी दूसरे के साथ योग होने पर वह उसमें मध्य भी नहीं होता। स्कन्ध रूप में बदल जाता है।
जिस स्कन्ध के प्रदेश समान होते हैं उसका अर्ध होता है और परमाणु अप्रदेश है-यह वचन द्रव्य की अपेक्षा से है। काल और जिसके प्रदेश विषम होते हैं उसमें मध्य होता है। संख्येय, असंख्येय और भाव की अपेक्षा परमाणु सप्रदेश भी हो सकता है। प्रस्तुत आगम में परमाणु अनन्तप्रदेशी स्कन्ध दोनों प्रकार के होते हैं—समप्रदेशिक और विषमचार लार के बतलाए गए हैं-द्रव्य परमाणु, क्षेत्र परमाणु, काल परमाणु प्रदेशिक । समप्रदेशिक स्कन्ध का अर्थ होता है। उसमें मध्य नहीं होता। और भाव परमाणु। सिद्धसेनगणी के अनुसार भाव परमाणु सावयव और द्विप्रदेशिक स्कन्ध समप्रदेशिक है, इसलिए उसमें अर्ध होता है, मध्य नहीं द्रव्य परमाणु निरवयव होता है।
होता। त्रिप्रदेशिक स्कन्ध विषमप्रदेशिक है, इसलिए उसका अर्ध नहीं है, एक परमाणु में एक वर्ण होता है। उस वर्ण की मात्राएं अनेक होती मध्य है। अर्ध और मध्य दोन्में एक साथ नहीं हो सकते। समप्रदेशिक स्कन्धों हैं। कभी वह परमाणु एक गुण काला होता है, कभी दो गुण काला, कभी की वक्तव्यता द्विप्रदेशी-स्कन्ध के समान है, विषम प्रदेशी स्कन्धों की संख्यात गुण काला, कभी असंख्यात गुण काला और कभी अनन्त गुण वक्तव्यता त्रिप्रदेशिक स्कन्ध के समान है। काला। इस प्रकार गन्ध, रस और स्पर्श में भी गुण-भेद अथवा मात्रा-भेद ठाणं के अनुसार परमाणु अभेद्य, अदाह्य, अग्राह्य, अनर्ध, होता है। इस गुण-भेद की अपेक्षा परमाणु को अनेक अवयव वाला अमध्य, अप्रदेश और अविभाज्य होता है।'
परमाणु-खंधाणं परोप्परं फुसणा-पदं परमाणु-स्कन्धानां परस्परं स्पर्शना- परमाणु-स्कन्धों का परस्पर स्पर्शना-पद
पदम् १६५. परमाणुपोग्गले ण भंते ! परमाणुपोग्गलं परमाणुपुद्गल: भदन्त ! परमाणुपुद्गल १६५. 'भन्ते ! परमाणु-पुद्गल परमाणु-पुद्गल का फुसमाणे किं --
स्पृशन् किं-१.देशेन देशम् स्पृशति २.दे- स्पर्श करता हुआ क्या-१. एक देश से एक देश १. देसेणं देंसं फुसइ २. देसेणं देसे फुसइ शेन देशान् स्पृशति ३. देशेन सर्वं स्पृशति का स्पर्श करता है? २. एक देश से अनेक देशों का ३. देसेणं सव्वं फुसइ ४. देसेहिं देस फुसइ ४. देशै: देशंस्पृशति ५. देशै: देशान् स्पृशति स्पर्श करता है? ३. एक देश से सर्व का स्पर्श करता
१. प्रज्ञा. वृ.प. २०२,३-परमाणुर्हि अप्रदेशो गीयते, द्रव्यरूपतया साशो न भवतीति, ननु कालभावाभ्यामपि "अपएसो दब्बठ्याए" इति वचनात् । ततः कालभावाभ्यां सप्रदेशत्वेपि न कश्चिद्दोषः। २. भ. २०/३७-४१
३. त.सू.भा.वृ. ५/१-ननु चैकोऽपि परमाणुः पुद्गलद्रव्यमेव स कथ बह्ववयवो भवेत्? किमत्र प्रतिपाद्यम्? ननु प्रसिद्धमेवेदमेकरसगन्धवों द्वि स्पर्शश्चाणुर्भवति, भावावयवै: सावयवो द्रव्यावयवैर्निरवयव इति। ४. ठाणं, ३/३२९-३३५
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