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________________ भगवई २१३ श. ५: उ.८: सू.२०८-२२६ एकेन्द्रिय जीव प्रति समय उत्पन्न होते रहते हैं। इसलिए उनका विरह-काल नहीं होता। एकेन्द्रिय जीव जब बहुतर उत्पन्न होते हैं और अल्पतर उद्वर्तन करते हैं तब उनकी वृद्धि होती है। जब बहुतर उद्वर्तन करते हैं और अल्पतर उत्पन्न होते हैं तब उनकी हानि होती है। उत्पाद और उद्वर्तन सम होते हैं, तब उनकी अवस्थिति होती है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और सम्मूर्छिम पञ्चेन्द्रिय का विरह-काल एक अन्तर्मुहूर्त और समीकरण-काल एक अन्तर्मुहूर्त इस प्रकार अवस्थिति-काल दो अन्तर्मुहर्त्त का होता है। शेष जीवों का विरह-काल इस प्रकार है जीव विरह-काल गर्भज तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय १२ मुहूर्त सम्मूर्छिम-मनुष्य २४ मुहूर्त गर्भज-मनुष्य १२ मुहूर्त भवनपति, वानमन्तर, ज्योतिष्क तथा सौधर्म, ईशान २४ मुहूर्त सनत्कुमार ९ दिन-रात और २० मुहूर्त माहेन्द्र १२ दिन-रात और १० मुहूर्त २२ दिन-रात लान्तक ४५ दिन-रात महाशुक्र ८० दिन-रात सहस्रार १०० दिन-रात आनत-प्राणत संख्येय मास आरण-अच्युत संख्येय वर्ष अधस्तन ग्रैवेयक संख्येय सौ वर्ष मध्यम ग्रैवेयक संख्येय हजार वर्ष उपरितन ग्रैवेयक संख्येय लाख वर्ष चार अनुत्तर विमान असंख्येय हजार वर्ष सर्वार्थ सिद्धि विमान पल्योपम का संख्यातवां भाग छह मास जितना विरह-काल है, उतना ही समीकरण-काल है। दोनों का योग होने पर अवस्थिति-काल बन जाता है। सिद्ध जीवाणं सोवचय-सावचयादि-पदं २२५. जीवा णं भंते ! किं सोवचया? सावच- या? सोवचय-सावचया? निरुवचय-निरव- चया? गोयमा ! जीवा नो सोवचया, नो सावचया, नो सोवचय-सावचया, निरुवचय-निरवचया। एगिदिया ततियपदे, सेसा जीवा चउहिं वि पदेहिं भाणियव्वा।। जीवानां सोपचय-सापचयादि-पदम् जीवा: भदन्त ! किं सोपचया:? सापचया:? सोपचय-सापचया:? निरुपचय-निरप- चया:? गौतम ! जीवा: नो सोपचयाः, नो सापचया:, नो सोपचय-सापचया:, निरुपचय-निरपचया:। एकेन्द्रिया: तृतीयपदे, शेषा: जीवा: चतुर्भिरपि पदैः भणितव्याः। जीवों का सोपचय-सापचय-आदि पद २२५. 'भंते ! क्या जीव उपचय-सहित है? अपचय सहित हैं? उपचय-अपचय-सहित हैं? अथवा उपचय और अपचय से रहित हैं? - गौतम ! जीव न उपचय-सहित हैं, न अपचयसहित हैं, न उपचय-अपचय-सहित हैं वे उपचय और अपचय से रहित हैं। एकेन्द्रिय जीव तीसरे पद में सोपचय-सापचय हैं। शेष जीव चारों पदों में वक्तव्य हैं। २२६. सिद्धाणं भन्ते ! पुच्छा। सिद्धा: भदन्त ! पृच्छा २२६. भन्ते ! सिद्धों की पृच्छा। १.पण्ण.६/१९॥ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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