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________________ श. ५ : उ. ८ : सू. २०८-२२४ एवं भाणियव्वं वड्ढति, हायंति जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असं खेज्जइभागं, अवट्ठियाणं जं भणियं ॥ २२३. सिद्धा गं भंते । के वहां कालं वर्द्धति? गोयमा ! जहणणेणं एक्कं समयं, उनकोसेणं अट्ठ समया ॥ सिद्धाः भदन्त ! कियन्तं कालं वर्धन्ते ? गौतम! जघन्येन एकं समयम्, उत्कर्षेण अष्ट समयान् । २२४. के वइयं कालं अवडिया? कियन्तं कालम् अवस्थिताः ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं गौतम ! जघन्येन एकं समयम्, उत्कर्षेण " छम्मासा ॥ षण्मासान् । - नाम रत्नप्रभा शर्कराप्रभा १. सूत्र २०८-२२४ जीव मौलिक द्रव्य है। जीव- अजीव नहीं बनता और अजीव जीव नहीं बनता—यह लोकस्थिति का शाश्वत नियम है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि न कोई नया जीव उत्पन्न होता है और न किसी जीव का अस्तित्व समाप्त होता है। जीव अवस्थित है— जितने जीव थे, उतने ही हैं और उतने ही रहेंगे। बालुकाप्रभा पंक प्रभा २१२ एवं भणितव्यम् - वर्धन्ते, हीयन्ते जघन्येन एक समयम्, उत्कर्षेण आवलिकायाः असंख्येयभागम अवस्थितानां वद् भणितम् । नैरयिक आदि चौबीस दण्डक जीव द्रव्य के पर्याय अथवा अवस्था विशेष हैं। इसलिए उनमें हानि-वृद्धि होती रहती है। अवस्थिति भी - प्रत्येक नरक का अवस्थिति-काल भिन्न-भिन्न प्रकार का है. धूमप्रभा तमः प्रभा तमस्तमा: प्रभा समुच्चयप्रभा Jain Education International भाष्य विरह-काल २४ मुहूर्त्त ७ दिन-रात अर्धमास १ मास २ मास ४ मास ६ मास १२ मुहूर्त १. ठाण, १०/१ २. पण्ण. ६/१.६ ३. भ. वृ. ५/२१५ - सप्तस्वपि पृथिवीषु द्वादश मुहूर्त्तान् यावत्र कोऽप्युत्पद्यते वा, उत्कृष्ट तो विरहकालस्यैवरूपत्वात्, अन्येषु पुनर्द्वादशमुहूर्तेषु यावन्त उत्पद्यन्ते तावन्त एवोद्वर्तन्त इत्येवं चतुर्विंशतिमुहूर्त्तान् यावन्नारकाणामेकपरिमाणत्वादवस्थितत्वं वृद्धिहान्योरभाव इत्यर्थः । भगवई यह पूरा प्रकरण इस प्रकार वक्तव्य है— जीवों की वृद्धि और हानि का क्रम जघन्यतः एक समय और उत्कर्षतः आवलिका का असंख्यातवां भाग है। अवस्थिति-काल (सभी का जघन्यतः एक समय उत्कर्षतः) जो ऊपर बताया गया, वैसा ही है। २२३. भन्ते ! सिद्ध कितने काल तक बढ़ते हैं? गौतम! जघन्यतः एक समय, उत्कर्षतः आठ समय । २२४, भन्ते सिद्ध कितने काल तक अवस्थित रहते हैं? गौतम ! जघन्यतः एक समय, उत्कर्षत: छह मास तक । सापेक्ष है— विरह काल तथा उत्पत्ति और उद्वर्तन के समीकरण की अपेक्षा से है। पण्णवणा के अनुसार सातों नरक-पृथ्वियों में बारह मुहूर्त्त का विरह काल होता है! उस अवधि में न कोई नैरयिक उत्पन्न होता है और न कोई उद्वर्तन करता- - बाहर निकलता है।' • उससे अगला बारह मुहूर्त का काल समीकरण का है। उस अवधि में जितने नैरयिक उत्पन्न होते हैं उतने ही निकल जाते हैं। इस प्रकार सातों नरक - पृथ्वियों का अवस्थिति काल चौबीस मुहूर्त्त का है। इस अवधि में नैरयिक जीवों की वृद्धि हानि नहीं होती ।' समीकरण काल २४ मुहूर्त्त ७ दिन-रात अर्धमास १ मास २ मास ४ मास ६ मास १२ मुहूर्त्त For Private & Personal Use Only अवस्थिति काल ४८ मुहूर्त १४ दिन-रात १ मास २ मास ४ मास ८ मास १२ मास २४ मुहूर्त ४. भ. वृ. ५/२४५ एवं रत्नप्रभादिषु यो यत्रोत्पादोद्वर्ननाविरहकालश्चतुर्विंशतिमुहूर्त्तादिको व्युत्क्रान्तिपदेऽभिहितः स तत्र तेषु तत्तुल्यस्य समसयानामुत्पादोद्वर्त्तनाकालस्य मीलनादू द्विगुणितः सन्नवस्थितकालोऽपटचत्वारिंशन्मुहूर्त्तादिक: सूत्रोक्ते भवति, विरहकालश्च प्रतिपदमवस्थानकालार्द्धभूतः स्वयमभ्युहा इति । www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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