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________________ श. ५ : ३.८ : सु. २०८-२१६ हायंति? अवडिया? किं वर्धन्ते? हीयन्ते? अवस्थिताः ? " गोयमा ! जीवा नो वर्द्धति, नो हायंति, गीतम! जीवा नो वर्धन्ते नो हीयन्ते, अवप्रिया ॥ अवस्थिताः । २०९. नेरइया णं भंते! किं वर्द्धति ? हायंति ? नैरयिका: भदन्त ! किं वर्धन्ते ? हीयन्ते ? अवट्ठिया? अवस्थिताः ? गोयमा ! नेरइया वड्ढति वि, हायंति वि, गौतम ! नैरयिकाः वर्धन्तेऽपि, हीयन्तेऽपि, अवट्टिया वि ।। अवस्थिताः अपि । २१०. जहा रया एवं जाव वैमाणिया । यथा नैरयिका एवं यावद् वैमानिकाः ॥ २११. सिद्धा णं भंते! पुच्छा । गोयमा सिद्धावति, नो हाति अब द्विया वि ॥ २१२. जीवा णं भंते ! केवतियं कालं अवडिया? गोवमा ! सव्चयं ॥ २१० 9 २१६. एवं सतसु वि पुढवीसु 'वड्ढति, हायति' भाणियन्वं नवरं अवडिएस इमं नाणत्तं तं जहा - रयणप्पभाए पुढवीए अडयालीसं मुहुत्ता, सक्करप्पभाए चोद्दस इंदिया, वालुयप्पा मासं पंकप्पभाए दो मासा, धूमप्पभाए चत्तारि मासा, तपाए २१३. नेरइया णं भन्ते ! केवतियं कालं नैरयिका: भदन्त ! कियन्तं कालं वर्धन्ते ? बद्धति ? गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेज्जइभागं ॥ २१४. एवं हायंति वि ॥ Jain Education International सिद्धा: भदन्त ! पृच्छा । गौतम ! सिद्धाः वर्धन्ते, नो हीयन्ते, अवस्थिताः अपि । - जीवा: भदन्त ! कियन्तं कालम् अवस्थिताः ? गौतम ! सर्वाद्धा । २१५. नेरइया णं भंते! केवतियं कालं अवशिवा? नैरयिका: भदन्त ! कियन्तं कालम् अवस्थिताः ? गोयमा ! जहणेणं एगं समयं, उक्कोसेणं गौतम ! जघन्येन एक समयम्, उत्कर्षेण चउवींस मुहुत्ता ॥ चतुर्विशंति मुहूर्त्तान् । गौतम ! जघन्येन एकं समयम्, उत्कर्षेण आवलिकायाः अवेयभागम् । एवं हीयन्तेऽपि । एवं सप्तसु अपि पृथिवीषु 'वर्धन्ते, हीयन्ते' भणितव्यम् नवरं अवस्थितेषु इदं नानात्वं, तद् यथा - रत्नप्रभायां पृथिव्याम् अष्टचत्वारिंशत् मुहूर्त्तान्, शर्कराप्रभायां चतुर्दश रात्रिंदिनानि, बालुकाप्रभायां मासम्, पङ्कप्रभायां द्वौ मासौ, धूम्रप्रभायां चतुर: मासान्, 7 For Private & Personal Use Only भगवई — भन्ते ! क्या जीव बढ़ते हैं? घटते हैं? अथवा अवस्थित हैं? गौतम! जीवन बढ़ते हैं, न घटते हैं? अवस्थित हैं। २०९. भन्ते! क्या नैरयिक जीव बढ़ते हैं? घटते हैं? अथवा अवस्थित हैं ? गौतम! नैरयिक जीव बढ़ते भी हैं, घटते भी हैं और अवस्थित भी हैं। २१०. जैसी वक्तव्यता नैरयिक जीवों की है वैसी ही वक्तव्यता यावत् वैमानिक देवों तक की है। २११. भन्ते सिद्धों की पृच्छा गौतम ! सिद्ध जीव बढ़ते हैं, घटते नहीं हैं, अवस्थित भी हैं। २१२. भन्ते ! जीव कितने काल तक अवस्थित रहते हैं? गौतम! सर्वकाल में जीव अवस्थित रहते हैं। २१३. भन्ते ! नैरयिक जीव कितने काल तक बढ़ते हैं? गौतम ! जघन्यतः वे एक समय तक बढ़ते हैं, उत्कर्षतः आवलिका के असंख्यातवें भाग तक। २१४. इसी प्रकार जीव घटते भी हैं। ( जघन्यतः एक समय तक, उत्कर्षतः आवलिका के असंख्यातवें भाग तक) । २१५. भंते! नैरयिक जीव कितने काल तक अवस्थित रहते हैं? गौतम ! जघन्यत: एक समय तक उत्कर्षत: चौबीस मुहूर्त्त तक । २१६. इसी प्रकार सातों पृथ्वियों में नैरयिक जीवों की वृद्धि और हानि वक्तव्य है। विशेष अवस्थिति में यह नानात्व है, जैसे- रत्नप्रभा पृथ्वी में अड़तालीस मुहूर्त शर्कराप्रभा पृथ्वी में चौदह दिन-रात, वालुकाप्रभा पृथ्वी में एक मास, पंकप्रभा पृथ्वी में दो मास, धूमप्रभा पृथ्वी में चार मास, तमा पृथ्वी में www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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