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भगवई
श.३: उ.५ : सू.२०३-२०७
२०३. अणगारे णं भंते! भाविअप्पा केवइयाई अनगारः भदन्त! भावितात्मा कियन्ति प्रभुः २०३. भन्ते! भावितात्मा अनगार एक ओर यज्ञोपवीत पभू एगओजण्णोवइतकिच्चगयाई रुवाई एकतोयज्ञोपवीतकृत्यागतानि रूपाणिवि- धारण किए हुए कितने कृत्यागत रूपों की विकुवित्तए? कर्तुम्?
विक्रिया करने में समर्थ है? तं चेव जाव विकुव्विस्सु वा, विकुव्वति तच्चैव यावद् व्यकार्षीद् वा, विकरोति वा, वही (सू. १६६ की) वक्तव्यता यावत् भावितात्मा वा, विकुव्विस्सति वा। विकरिष्यति वा।
अनगार ने क्रियात्मक रूप में न तो कभी ऐसी विक्रिया की, न करता है और न करेगा।
२०४. एवं दुहओजण्णोवइयं पि ॥
एवं द्विधायज्ञोपवीतमपि।
२०४. इसी प्रकार दोनों ओर यज्ञोपवीत धारण किए हुए पुरुष की वक्तव्यता।
२०५. से जहानामए केइ पुरिसे एगओपल्ह- तद् यथानाम कोऽपि पुरुषः एकतःपर्यस्तिका २०५. भन्ते! जैसे कोई पुरुष एक (अर्ध) त्थियं काउं चिट्ठज्जा, एवामेव अणगारे वि कृत्वा तिष्ठेत, एवमेव अनगारोऽपि भावितात्मा पर्यस्तिका-आसन' में बैठता है, इसी प्रकार भाविअप्पा एगओपल्हत्थियकिच्चगएणं एकतःपर्यस्तिककृत्यागतेन आत्मना ऊर्ध्व भावितात्मा अनगार भी क्या एक पर्यस्तिका-आसन अप्पाणेणं उड्ढं वेहासं उप्पएज्जा? विहायः उत्पतेत्?
में बैठ कृत्यागत होकर ऊपर आकाश में उड़ता
तं चेव जाव विकुच्विंसु वा, विकुव्वति वा, तच्चैव यावद् व्यकार्षीद् वा, विकरोति वा, विकुव्विस्सति वा ॥
विकरिष्यति वा।
वही (सू. १६६ की) बक्तव्यता यावत् भावितात्मा अनगार ने क्रियात्मक रूप में न तो कभी ऐसी विक्रिया की, न करता है और न करेगा।
भाष्य
१. पर्यस्तिका (पल्हत्थिय)
'हठयोगप्रदीपिका' में इसे स्वस्तिकासन के रूप में इस प्रकार व्याख्यापित किया गया है-दोनों जांघों और घुटनों के मध्य में दोनों पादतलों (तलवों) को रखकर त्रिकोणाकार-आसन बांधना तथा सरल
भाव से बैठने को स्वस्तिकासन कहते हैं।' 'घेरण्डसंहिता' में भी यही व्याख्या उपलब्ध है।
उत्तरज्झयणाणि (१/१६ का टिप्पण) में 'पल्हत्थियं' का दूसरा अर्थ दिया गया है।
२०६. एवं दुहओपल्हत्थियं पि ॥
एवं द्विधापर्यस्तिकाम् अपि।
२०६. इसी प्रकार द्वि (पूर्ण) पर्वस्तिकासन की वक्तव्यता।
२०७. से जहानामए केइ पुरिसे एगओप- तद् यथानाम कोऽपि पुरुषः एकतःपर्यत लियंक काउं चिद्वेज्जा, एवामेव अणगारे कृत्वा तिष्ठेत् एवमेव अनगारोऽपि भावितात्मा वि भाविअप्पा एगओपलियंककिच्चगएणं एकतःपर्यङ्ककृत्यागतेन आत्मना ऊर्ध्वं विहायः अप्पाणेणं उड्ढे वेहासं उप्पएज्जा? उत्पतेत्? तं चेव जाव विकुव्विंसु वा, विकुब्वति वा, तच्चैव यावद् व्यकार्षीट् वा, विकरोति वा, विकुव्विस्सति वा ॥
विकरिष्यति वा।
२०७. जैसे कोई पुरुष एक (अर्ध) पर्यकासन' में बैठता है, इसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी क्या एक पर्यकासन में बैठ कृत्यागत होकर ऊपर आकाश में उड़ता है? वही (सू. १६६ की) वक्तव्यता यावत् भावितात्मा अनगार ने क्रियात्मक रूप में न तो कभी ऐसी विक्रिया की, न करता है और न करेगा।
भाष्य
१. पर्यंकासन-पर्यंकासन का अर्थ पद्मासन और अर्ध पर्यकासन का अर्थ अर्ध पद्मासन किया जाता है। कुछ आचार्य पर्यकासन की
मुद्रा वज्रासन के रूप में उल्लिखित करते हैं
पर्यक-दोनों जंघाओं के अधोभाग को दोनों पैरों पर टिकाकर
२. घेरण्डसंहिता, २/१२।
१. हठयोगप्रदीपिका, १/१६
जानूर्वोरन्तरे सम्यक् कृत्या पादतले उभे। ऋजुकायः समासीनः स्वस्तिकं तत् प्रचक्षते ॥
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