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________________ श.३: उ. ५ : सू.२०७-२११ बैठना । अर्धपर्यंक- एक जंघा के अधोभाग को पैर पर टिकाकर बैठना ।" आयंगार के अनुसार पर्यकासन की मुद्रा सुप्तयज्ञासन से कुछ भिन्न हैं- "केवल सिर के मुकुट को जमीन पर स्थित कर पीठ की मेहराब ऊपर बनाते हुए गर्दन और छाती को उठाएं। धड़ का कोई हिस्सा जमीन पर नहीं होना चाहिए।" २०८. एवं दुहओपलियंक पि ॥ भाविअप्प - अभिजुंजणा-पदं २०६. अणगारे णं भंते! भाविअप्पा बाहिरए पोम्गले अपरियादत्ता पभू एवं नई आसरूवं वा हथिरूवं वा सीहरूवं वा विग्घरूवं वा विगरूवं वा दीवियरूवं वा अच्छरूवं वा तरच्छरूवं वा परासररूवं वा अभिजुंजित्तए ? नो इणट्टे समट्टे ॥ २१०. अणगारे णं भंते भाविअप्पा बाहिरए पोग्गले परिवाइत्ता पभू एवं महं आसरूवं वा हत्यिरूवं वा सीहरूवं वा विग्घरूवं वा विगरूवं वा दीवियरूवं वा अच्छरूवं वा तरच्छरूवं वा परासररूवं वा अभिजुंजित्तए ? हंता पभू ॥ १. बहिर्वर्ती पुद्गलों का सूत्र १६४ में बाहिरए पोग्गले पाठ है वहां वृत्तिकार ने इसका अर्थ वैक्रिय पुद्गल किया है। प्रस्तुत सूत्र में आए हुए बाहिरए पोग्गले का अर्थ 'विद्या आदि के सामर्थ्य से गृहीत बाह्य पुद्गल' किया है।" इसका हेतु यह है कि १६४वें सूत्र में वैक्रिय लब्धि द्वारा रूप निर्माण का विषय है। प्रस्तुत सूत्र में परकाय प्रवेश का विषय है। २११. अणगारे णं भंते! भाविअप्पा ( पभू?) एगं महं आसरूवं वा अभिजुंजित्ता अणेगाईं जोयणाई गमित्तए? हंता पभू ॥ १. मूलाराधना, ३/२२४-२५ । २. योगदीपिका, पृ. ८६ । ३. द्रष्टव्य भ. ३/१६४ भाष्य । Jain Education International ८६ भगवई पर्यक का अर्थ पलंग अथवा सोफा है। सुप्तव्रजासन का आकार पलंग जैसा हो जाता है। इसलिए दुहओपलियंक का अर्थ 'सुप्तवज्रासन' किया जा सकता है। एगओपलियंक का अर्थ 'अर्धवज्रासन' - एक साथल (सक्थि) के अधोभाग को एक पैर पर टिका कर बैठना तथा दूसरे पैर को मोड़कर घुटने को ऊंचा रखकर बैठना 'पर्वकासन की विशेष जानकारी के लिए भ. २/६२ का भाष्य द्रष्टव्य है। 1 २०८. इसी प्रकार द्वि (पूर्ण) पर्यंकासन की वक्तव्यता । एवं द्विधापर्यङ्ककम् अपि । भावितात्म- अभियोजना-पदम् अनगारः भदन्त भावितात्मा बाह्यकान् पुद्गलान् अपर्यादाय प्रभुः एक महदू अश्वरूपं वा हस्तिरूपं वा सिंहरूपं वा व्याघ्ररूपं वा वृकरूपं वा द्वीपिकरूपं वा ऋक्षरूपं वा तरक्षरूपं वा पराशररूपं वा अभियोक्तुम् ? नायमर्थः समर्थः भाष्य शब्द-विमर्श अनगारः भदन्त ! भावितात्मा बाह्यकान् पुद्गलान् पर्यादाय प्रभुः एकं महद् अश्वस्पं वा हस्तिरूपं वा सिंहरूपं वा व्याघ्ररूपं वा वृकरूपं वा द्वीपिकरूपं वा ऋक्षरूपं वा तरक्षरूपं वा पराशररूपं वा अभियोक्तुम् ? हन्त प्रभुः । भावितात्म-अभियोजना- पद २०६. भन्ते ! भावितात्मा अनगार बहिर्वर्ती पुद्गलों का ग्रहण किए बिना क्या एक महान् अश्वरूप, हस्तीरूप, सिंहरूप, व्याघ्ररूप, भेड़िये का रूप, चीते का रूप, रींछ का रूप, तेंदुए का रूप अथवा अष्टापद रूप की अभियोजना ( उनके शरीर में अनुप्रविष्ट हो व्याप्त करने में समर्थ है? नहीं, यह अर्थ संगत नहीं है। वृक ( विग्ध) - भेड़िया द्वीपिक (दीविय) - चीता ॠक्ष (अच्छ) - रींछ तरक्ष (तरच्छ)- तेंदुआ पराशर - अष्टापद अनगारः भदन्त ! भावितात्मा (प्रभुः ? ) एकं महद् अश्वरूपं वा अभियुज्य अनेकानि योजनानि गन्तुम्? हन्त प्रभुः । For Private & Personal Use Only २१०. भन्ते ! भावितात्मा अनगार बहिर्वर्ती पुद्गलों का ग्रहण कर क्या एक महान् अश्वरूप, हस्तीरूप, सिंहरूप, व्याघ्ररूप, भेड़िये का रूप, चीते का रूप, रीछ का रूप, तेंदुए का रूप अथवा अष्टापदरूप की अभियोजना में समर्थ है? हां, समर्थ है। २११. भन्ते भावितात्मा अनगार क्या एक महान् अश्वरूप की अभियोजना कर अनेक योजनों तक जाने में समर्थ है? हां समर्थ है। ४. म. . ३०२०९ अभियो विवादिनामानुप्रवेशे व्यापारवितुं यन् स्वस्यानुप्रवेशनेनाभियोजनं तद्विद्यादिसामर्थ्योपात्तबाह्यपुद्गलान् बिना न स्यादितिकृत्वा । www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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